*जीवन व्यर्थ है , ऐसा मत कहो*
ऐसा कहो कि मेरे जीने के ढंग में क्या कहीं कोई भूल थी ? क्या कहीं कोई भूल है कि मेरा जीवन व्यर्थ हुआ जा रहा है ?
*जीवन तो कोरा कागज है ;* जो लिखोगे वही पढोगे। गालिया लिख सकते हो, गीत लिख सकते हो। और गालिया भी उसी वर्णमाला से बनती है जिससे गीत बनते है। वर्णमाला तो निरपेक्ष है, निष्पक्ष है। जिस कागज पर लिखते हो वह भी निरपेक्ष, निष्पक्ष। जिस कलम से लिखते हो, वह भी निरपेक्ष, वह भी निष्पक्ष। सब दांव तुम्हारे हाथ है। तुमने इस ढंग से जीया होगा, इसलिए व्यर्थ मालूम होता है। तुम्हारे जीने में भूल है और जीवन को गाली मत देना।
यह बड़े मजे की बात है। लोग कहते है, जीवन व्यर्थ है। यह नहीं कहते कि हमारे जीने का ढंग व्यर्थ है और तुम्हारे तथाकथित साधु - संत, महात्मा भी तुमको यही समझाते है की जीवन व्यर्थ है।
मैं तुमसे कुछ और कहना चाहता हूं, मैं कहना चाहता हूं, जीवन न तो सार्थक है, न व्यर्थ ; *जीवन तो निष्पक्ष है। जीवन तो कोरा आकाश है, उठाओं तूलिका, भरो रंग। चाहो तो इंद्रधनुष बनाओ और चाहो तो कीचड़ मचा दो।* कुशलता चाहिए। अगर जीवन व्यर्थ है तो उसका अर्थ यह है कि तुमने जीवन को जीने की कला नहीं सीखी ; उसका अर्थ है कि तुम यह मान कर चले थे कि कोई जीवन में रेडीमेड अर्थ होगा।
जीवन कोई रेडीमेड कपडे नहीं है कि गए और तैयार कपडे मिल गए। जिंदगी से कपडे बनाने पड़ते है। फिर जो बनाओगे वही पहनना पड़ेगा वाही ओढ़ना पड़ेगा, और कोई दूसरा तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी नहीं कर सकता। कोई दूसरा तुम्हारे कपडे नहीं बना सकता। जिंदगी के मामले में तो अपने कपडे खुद ही बनाने होते है..............
*ओशो*
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