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शनिवार, 4 अगस्त 2018

आंतरिक संपदा - गीता दर्शन

Best Hindi Book
ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 20, भाग 1
*【आंतरिक संपदा】*
*भगवानुवाच :*
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।। 43।।
कृष्ण बोले : *_ और वह पुरुष वहां उस पहले शरीर में साधन किए हुए बुद्धि के संयोग को अर्थात समत्वबुद्धि योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। और हे कुरुनंदन, उसके प्रभाव से फिर अच्छी प्रकार भगवत्प्राप्ति के निमित्त यत्न करता है।_*

*ओशो :*  जीवन में कोई भी प्रयास खोता नहीं है। जीवन समस्त प्रयासों का जोड़ है, जो हमने कभी भी किए हैं। समय के अंतराल से अंतर नहीं पड़ता है। प्रत्येक किया हुआ कर्म, प्रत्येक किया हुआ विचार, हमारे प्राणों का हिस्सा बन जाता है। हम जब कुछ सोचते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं; जब कुछ करते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं। वह रूपांतरण हमारे साथ चलता है।
 हम जो भी हैं आज, हमारे विचारों, भावों और कर्मों का जोड़ हैं। हम जो भी हैं आज, वह हमारे अतीत की पूरी शृंखला है। एक क्षण पहले तक, अनंत-अनंत जीवन में जो भी किया है, वह सब मेरे भीतर मौजूद है।
 कृष्ण कह रहे हैं, इस जीवन में जिसने साधा हो योग, लेकिन सिद्ध न हो पाए अर्जुन, तो अगले जीवन में अनायास ही, जो उसने साधा था, उसे उपलब्ध हो जाता है। अनायास ही! उसे पता भी नहीं चलता। उसे यह भी पता नहीं चलता कि यह मुझे क्यों उपलब्ध हो रहा है। इसलिए कई बार बड़ी भ्रांति होती है। और इस जगत में सत्य अनायास मिल सकता है, इस तरह के जो सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं, उनके पीछे यही भ्रांति काम करती है।
 कोई व्यक्ति अगर पिछले जन्म में उस जगह पहुंच गया है, जहां पानी निन्यानबे डिग्री पर उबलने लगे, और एक डिग्री कम रह गया है, वह अचानक कोई छोटी-मोटी घटना से इस जीवन में परम ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। आखिरी तिनका रह गया था ऊंट पर पड़ने को और ऊंट बैठ जाता है। पर एक छोटा-सा तिनका, अगर आप कभी वजन तौलते हैं तराजू पर रखकर, तो आपको पता है, एक छोटा-सा तिनका कम हो, तो तराजू का पलड़ा ऊपर रहता है। एक तिनका बढ़ा, तो तराजू का पलड़ा नीचे बैठ जाता है; दूसरा ऊपर उठ जाता है। एक तिनके की भी प्रतिष्ठा होती है। एक तिनके का क्या मूल्य है! इसे ऐसा समझने की कोशिश करें।
 एक साध्वी, झेन साध्वी वर्षों तक अपने गुरु के पास थी। सब तरह के प्रवचन सुने, सब तरह के शास्त्र समझे, सब तरह के सिद्धांतों को जान लिया। लेकिन बस, कहीं कोई चीज अटकी थी और द्वार नहीं खुलते थे। ऐसा लगता था, चाबी हाथ में है, फिर भी ताला अनखुला ही रह जाता था। ऐसा लगता था कि मैं जानती हूं, फिर भी कुछ अंतराल था, कोई बाधा थी, कुछ दीवाल थी। कितनी ही बारीक और महीन पर्त थी, पर उस पार नहीं निकल पाती थी।
 गुरु से बार-बार पूछती है कि कौन-सी बाधा है? कैसे टूटेगी?
 गुरु कहता है, तू प्रतीक्षा कर। बहुत ही छोटी-सी बाधा है, अनायास ही टूट जाएगी। और बाधा इतनी छोटी है कि तू प्रयास शायद न कर पाए। बाधा बहुत छोटी है, अनायास ही टूट जाएगी। थोड़ी प्रतीक्षा कर; थोड़ी प्रतीक्षा कर।
 वर्ष पर वर्ष बीत गए। वह वृद्ध भी हो गई। फिर एक दिन उसने कहा कि कब टूटेगी वह बाधा? गुरु ने आकाश की तरफ देखा और कहा कि इस पखवाड़े में शायद चांद के पूरे होने तक टूट जाए। पांच-सात दिन बचे थे चांद की पूरी रात आने को, पूर्णिमा आने को। और पूर्णिमा की रात बाधा टूटी। और ऐसी अनायास टूटी कि झेन फकीरों के इतिहास में वह कहानी बन गई।
 सांझ सूरज डूब गया। चांद निकल आया। रोशनी उसकी फैलने लगी। गुरु ने, कोई दस बजे होंगे रात, उस साध्वी को कहा, मुझे प्यास लगी है, तू जाकर कुएं से पानी ले आ। जैसा जापान में करते हैं, यहां भी करते हैं। एक बांस की डंडी पर दोनों तरफ बर्तन लटका देते हैं और कुएं से पानी लाते हैं।
 बांस की डंडी पर लटके हुए मिट्टी के बर्तनों को लेकर कुएं पर पानी भरने गई। पानी भरकर लौटती थी। सोचती थी कि पूर्णिमा भी आ गई। चांद भी पूरा हो गया। आधी रात भी हुई जाती है। और गुरु ने कहा था कि शायद इस बार चांद के पूरे होते-होते बात हो जाए। अभी तक हुई नहीं। और कोई आशा भी नहीं दिखाई पड़ती! और अब तो सोने का वक्त भी आ गया। अब गुरु को पानी पिलाकर, और मैं सो जाऊंगी। कब घटेगी यह बात!
 और तभी अचानक उसकी बांस की डंडी टूट गई। उसके दोनों बर्तन जमीन पर गिरे; फूट गए; पानी बिखर गया। और घटना घट गई। उसने एक गीत लिखा है कि जब बर्तन नीचे गिरा, तब मैं बर्तन में देखती थी कि चांद का प्रतिबिंब बन रहा है–पानी में। फिर मिट्टी का घड़ा था; गिरा, फूटा। घड़ा भी फूट गया। पानी बिखर गया। चांद का प्रतिबिंब कहां खो गया, कुछ पता न चला। और घड़े के फूटते ही कोई चीज मेरे भीतर फूट गई। और जैसे चांद का प्रतिबिंब खो गया, ऐसे ही मैं खो गई। घड़े के फूटते ही, कुछ मेरे भीतर भी फूट गया। और जैसे चांद का प्रतिबिंब खो गया पानी में, ऐसे ही मैं खो गई। ऊपर देखा तो चांद था, भीतर देखा तो परमात्मा था। घड़े के बर्तन का प्रतिबिंब टूट गया, चांद नहीं टूट गया।
 हम परमात्मा के प्रतिबिंब से ज्यादा नहीं हैं। और हमारे अहंकार का घड़ा है, और राग का पानी है, उसमें सब प्रतिबिंब बनता है वहां।
 दौड़ी हुई गुरु के पास पहुंची, और कहा, कभी सोचा भी न था कि घड़े के फूटने से ज्ञान होगा! गुरु ने कहा, घड़े के फूटने से ही होता है। घड़ा कैसे फूटेगा, यही सवाल है। और तेरा घड़ा तो बहुत कमजोर था, फूटने को फूटने को ही था। कभी भी फूट सकता था। कोई ऐसे निमित्त की जरूरत थी, जिसमें कि वह जो तेरे भीतर आखिरी तिनका रखना है, वह पड़ जाए। वजन तो पूरा था, पलड़ा नीचे बैठने को था। बस, आखिरी तिनका, वह एक घड़े के फूटने से हो गया।
 बहुत लोगों के जीवन में अनायास घटना घटती है।
 एक बहुत अदभुत साधक और मिस्टिक, एडमंड बक ने एक किताब लिखी है, कास्मिक कांशसनेस। वह बड़ा हैरान है। न उसने कभी कुछ साधा, न कभी कोई प्रार्थना की, न कभी कोई पूजा की, न प्रभु में विश्वास करता है। अचानक एक दिन रात, अंधेरी रात में जंगल से निकल रहा है। एकांत है, झींगुरों की आवाज के सिवाय कोई आवाज नहीं है। धीमी सी चांदनी है। हवा के झोंके वृक्षों में आवाज कर रहे हैं।
 अचानक, घड़ा भी नहीं फूटा–इस महिला के मामले में तो घड़ा फूटा, इसलिए घटना घटी–अचानक, बक ने लिखा है कि बस, न मालूम क्या हुआ। मेरी समझ में न पड़ा कि क्या हुआ, लगा कि जैसे मैं मर रहा हूं। बैठ गया। एक क्षण को ऐसा लगा, सिंकिंग, जैसे कोई पानी में डूब रहा हो, ऐसा डूबता जा रहा हूं। बहुत घबड़ाहट हुई। चिल्लाने की कोशिश की। लेकिन जैसा कभी-कभी सपने में हम सबको हो जाता है। चिल्लाने की कोशिश करते हैं, आवाज नहीं निकलती। हाथ उठाने की कोशिश करते हैं, हाथ नहीं उठता। तो बक ने लिखा है, न हाथ उठे, न चिल्लाने की आवाज निकले। फिर यह भी खयाल आया, कोई सुनने को भी झींगुरों के अतिरिक्त वहां है नहीं। आवाज करने से भी क्या होगा? कब आंखें बंद हो गईं। कब मैं नीचे गिर पड़ा। लगा कि मर गया।
 कब मुझे होश आया, कोई आधी रात हो गई, और मैंने देखा कि मैं दूसरा आदमी हूं। वह आदमी जा चुका जो कल तक था। वह संदेह करने वाला, वह अश्रद्धालु, वह अविश्वासी, वह नास्तिक नहीं है। कोई और ही मेरे भीतर आ गया है। वृक्ष के पत्ते-पत्ते में परमात्मा दिखाई पड़ रहा है। झींगुरों की आवाज ब्रह्मनाद हो गई। और बक जीवनभर कहता रहा कि मेरी समझ के बाहर है कि उस दिन क्या हुआ! अनायास!
 कृष्ण कहते हैं, पिछले जन्मों की यात्रा, अगर थोड़ी-बहुत अधूरी रह गई हो, कहीं हम चूक गए हों, तो किसी दिन अनायास, किसी जन्म में अनायास बीज फूट जाता है; दीया जल जाता है; द्वार खुल जाता है। और कई बार ऐसा होता है कि इंचभर से ही हम चूक जाते हैं। और इंचभर से चूकने के लिए कभी-कभी जन्मों की यात्रा करनी पड़ती है।
 कोलेरेडो में अमेरिका में जब पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो एक बहुत अदभुत घटना घटी, मुझे प्रीतिकर रही है। जब पहली दफा सोना मिला अमेरिका के कोलेरेडो में–और आज सबसे ज्यादा सोना कोलेरेडो में है, सबसे ज्यादा सोने की खदानें हैं–तो किसानों को ऐसे ही खेत में काम करते हुए सोना मिलना शुरू हो गया। पहाड़ों पर लोग चढ़ते, और सोना मिल जाता। लोगों ने जमीनें खरीद लीं और अरबपति हो गए।
 एक आदमी ने सोचा कि छोटी-मोटी जमीन क्या खरीदनी है; एक पूरा पहाड़ खरीद लिया। सब जितना पैसा था, लगा दिया। कारखाने थे, बेच दिए। पूरा पहाड़ खरीद लिया। खरबपति हो जाने की सुनिश्चित बात थी। जब छोटे-छोटे खेत में से खोदकर लोग सोना निकाल रहे थे, उसने पूरा पहाड़ खरीद लिया।
 लेकिन आश्चर्य, पहाड़ पर खुदाई के बड़े-बड़े यंत्र लगवाए, लेकिन सोने का कोई पता नहीं! वह पहाड़ जैसे सोने से बिलकुल खाली था। एक टुकड़ा भी सोने का नहीं मिला। कोई तीन करोड़ रुपया उसने लगाया था पहाड़ खरीदने में, बड़ी मशीनरी ऊपर ले जाने में। लोग कुदालियों से खोदकर सोना निकाल रहे थे कोलेरेडो में। सारी दुनिया कोलेरेडो की तरफ भाग रही थी। और वह आदमी बर्बाद हो गया कोलेरेडो में जाकर। उसकी हालत ऐसी हो गई कि मशीनों को पहाड़ से उतारकर नीचे लाने के पैसे पास में न बचे कि मशीनें बेच सके। ठप्प हो गया।
 अखबारों में खबर दी उसने कि मैं पूरा पहाड़ मय मशीनरी के बेचना चाहता हूं। उसके मित्रों ने कहा, कौन खरीदेगा! सारे अमेरिका में खबर हो गई है कि उस पहाड़ पर कुछ नहीं है। पर उसने कहा कि शायद कोई आदमी मिल जाए, जो मुझसे ज्यादा हिम्मतवर हो। कोई इतना पागल नहीं है, लोगों ने कहा। लेकिन उसने कहा, एक कोशिश कर लूं। क्योंकि मैं सोचता हूं, कोई मुझसे हिम्मतवर मिल सकता है।
 और एक आदमी मिल गया, जिसने तीन करोड़ रुपए दिए और पूरा पहाड़ और पूरी मशीनरी खरीदी। जब उसने खरीदी, तो उसके घर के लोगों ने कहा कि तुम बिलकुल पागल हो गए हो। दूसरा आदमी बर्बाद हो गया; अब तुम बर्बाद होने जा रहे हो! उस आदमी ने कहा, जहां तक पहाड़ खोदा गया है, वहां तक सोना नहीं है, यह साफ है। इसलिए मामला काफी हो चुका है। अब सोना नीचे हो सकता है। जहां तक खोदा गया है, वहां तक नहीं है। हम भी इस झंझट से बचे। वह आदमी मेहनत कर चुका, जो बेकार मेहनत थी। अब आगे मेहनत करनी है। बहुत-सा तो कट चुका है पहाड़। कौन जाने नीचे सोना हो! लोगों ने कहा कि इस झंझट में मत पड़ो। और जमीनें बहुत हैं, जिन पर ऊपर ही सोना है। पर उस आदमी ने वह पहाड़ खरीद ही लिया।
 और आश्चर्य की बात कि पहले दिन की खुदाई में ही कोलेरेडो की सबसे बड़ी सोने की खदान मिली–सिर्फ एक फुट मिट्टी की पर्त और। एक फुट मिट्टी की पर्त और! और कोलेरेडो का सबसे बड़ा सोने का भंडार उस पहाड़ पर मिला। और वह आदमी कोलेरेडो का सबसे बड़ा खरबपति हो गया।
 एक फुट! कभी-कभी एक इंच से भी चूक जाते हैं। कभी-कभी आधा इंच से भी चूक जाते हैं।
 तो कृष्ण कहते हैं, भय न करना अर्जुन! कितना ही चूक जाओ, जो तूने किया है, वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, वह अगले जन्म में पुनः वहीं से यात्रा शुरू होगी। समय का व्यवधान जरूर पड़ जाएगा। शायद तू समझ भी न पाए, जब अनायास घटना घटे। शायद तुझे प्रतीति भी न हो सके कि यह क्या हो रहा है। लेकिन जो तेरे साथ है, जो तेरा किया हुआ है, वह तेरे साथ होगा।
 योग की दिशा में किया गया कोई भी प्रयत्न कभी खोता नहीं। प्रभु की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। उतनी यात्रा हो जाती है। हम दूसरे हो जाते हैं। प्रभु की दिशा में सोचा गया विचार भी व्यर्थ नहीं जाता है, हम उतने तो आगे बढ़ ही जाते हैं।
 आश्वासन दे रहे हैं अर्जुन को कि तू इन बातों में मत पड़। तू इस भांति मत सोच कि कहीं पूरा न हो सका, तो क्या होगा! जितना भी होगा, उसकी भी अपनी अर्थवत्ता है। जितना भी तू कर लेगा, उतना भी काफी है।
 एक मित्र मेरे पास आए। वे कहते हैं कि उनका नब्बे प्रतिशत मन संन्यास लेने का है, दस प्रतिशत मन संन्यास लेने का नहीं है। तो मैंने कहा, फिर क्या खयाल है? उन्होंने कहा कि तो अभी नहीं लेता हूं। तो मैंने कहा कि थोड़ा सोच रहे हैं, कि न लेना भी एक निर्णय है। और दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय ले रहे हैं, और नब्बे प्रतिशत के पक्ष में निर्णय नहीं ले रहे हैं।
 वे कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत संन्यास लेने का मन है, दस प्रतिशत संदेह मन को पकड़ता है, तो अभी नहीं लेता हूं। पर उनको पता नहीं है कि यह भी निर्णय है। न लेना भी निश्चित निर्णय है। यह निर्णय दस प्रतिशत मन के पक्ष में लिया जा रहा है। और नब्बे प्रतिशत मन के पक्ष में जो निर्णय है, वह नहीं लिया जा रहा है। यह नब्बे प्रतिशत मन, मालूम होता है, उनका नहीं है; दस प्रतिशत मन उनका है।
 मेरा मतलब समझे! यह नब्बे प्रतिशत मन, मालूम पड़ता है, उनका नहीं है, कम से कम इस जन्म का नहीं है। अन्यथा यह कैसे हो सकता था कि आदमी नब्बे प्रतिशत को छोड़े और दस प्रतिशत को पकड़े! दस प्रतिशत उनका है, इस जन्म का है। नब्बे प्रतिशत उनके पिछले जन्मों की यात्रा का है। उससे उन्हें कोई कांशस संबंध नहीं मालूम पड़ता कि वह मेरा है। वह ऐसा लगता है कि कोई मेरे भीतर नब्बे प्रतिशत कह रहा है कि ले लो। लेकिन मैं रुक रहा हूं। मैं दस प्रतिशत के पक्ष में हूं। वे ज्यादा देर न रुक पाएंगे, क्योंकि वह नब्बे प्रतिशत धक्के मारता ही रहेगा। और दस प्रतिशत कितनी देर जीत सकता है? कैसे जीतेगा?
 लेकिन समय का व्यवधान पड़ जाएगा। जन्म भी खो सकते हैं। और वह नब्बे प्रतिशत प्रतीक्षा करेगा; और हर जन्म में धक्का देगा। हर दिन, हर रात, हर क्षण वह धक्के मारेगा। क्योंकि वह नब्बे प्रतिशत आपका बड़ा हिस्सा है, जिसे आप नहीं पहचान पा रहे हैं कि आपका है। और यह दस प्रतिशत, जिसको आप कह रहे हैं मेरा, यह सिर्फ इस जन्म का संग्रह है।
 ध्यान रहे, पिछले जन्मों और इस जन्म के बीच में जो संघर्ष है, उसी के कारण मनुष्य के कांशस और अनकांशस में फासला पड़ता है। फ्रायड को अंदाज नहीं है, जुंग को अंदाज नहीं है। क्योंकि जुंग और फ्रायड की बहुत गहरी पकड़ नहीं है। बहुत ऊपर-ऊपर उनकी खोज है। फ्रायड के पास जो उत्तर है, वह बहुत साफ नहीं है, कि मनुष्य के चेतन और अचेतन में फर्क क्यों पड़ता है? व्हाइ देअर इज़ डिस्टिंक्शन? यह चेतन और अचेतन जैसे दो हिस्से क्यों हैं मनुष्य के मन के?
 फ्रायड इतना ही कह सकता है कि अचेतन वह हिस्सा है, जिसको हमने दबा दिया। लेकिन क्यों दबा दिया? और फ्रायड यह भी जानता है कि वह अचेतन हिस्सा नौ गुना बड़ा है चेतन से। तो एक हिस्सा नौ गुने को दबा सकेगा? इसमें बड़ी भूल मालूम पड़ती है। फ्रायड कहता है कि अचेतन नौ गुना बड़ा है। अनकांशस नौ गुना बड़ा है कांशस से। जैसे कि बर्फ का टुकड़ा पानी में तैरता हो, तो जितना नीचे डूब जाता है, उतना अचेतन है, नौ गुना ज्यादा। जरा-सा ऊपर निकला रहता है, उतना चेतन है। अगर नौ गुना अचेतन वही हिस्सा है जो आदमी ने दबा दिया है, तो बड़े आश्चर्य की बात है कि चेतन छोटी-सी ताकत बड़ी ताकत को दबा पाती है?
 नहीं; फ्रायड की थोड़ी भूल मालूम पड़ती है। यह बात सच है, यह दमन की बात में थोड़ी सच्चाई है। लेकिन अचेतन असल में वह हिस्सा है मन का, जो हमारे अतीत जन्मों से निर्मित होता है; और चेतन वह हिस्सा है हमारे मन का, जो हमारे इस जन्म से निर्मित होता है।
 इस जन्म के बाद हमने जो अपना मन बनाया है, शिक्षा पाई है, संस्कार पाए हैं, धर्म, मित्र, प्रियजन, अनुभव, उनका जो जोड़ है, वह हमारा मन है, कांशस माइंड है। और उसके पीछे छिपी हुई जो अंतर्धारा है हमारे अचेतन की, अनकांशस माइंड की, वह हमारा अतीत है। वह हमारे अतीत जन्मों का समस्त संग्रह है।
 निश्चित ही, वह ज्यादा ताकतवर है, लेकिन ज्यादा सक्रिय नहीं है। इन दोनों बातों में फर्क है। ज्यादा ताकत से जरूरी नहीं है कि सक्रियता ज्यादा हो। कम ताकत भी ज्यादा सक्रिय हो सकती है। असल में जो हमने इस जन्म में बनाया है, वह ऊपर है; वह हमारे मन का ऊपरी हिस्सा है, जो हमने अभी बनाया है। और जो हमारे अतीत का है, वह उतना ही गहरा है। जो हमने जितने गहरे जन्मों में बनाया है, उतना ही गहरा दबा है।
 जैसे कोई आदमी के घर में धूल की पर्त जमती चली जाए वर्षों तक, तो आज सुबह जो धूल उसके घर में आएगी, वह ऊपर होगी, दिखाई पड़ेगी। और अगर हवा का झोंका आएगा, तो वर्षों की नीचे जो जमी धूल है, उसको पता भी नहीं चलेगा। ऊपर की हवा ही सक्रिय होती दिखाई पड़ेगी, ऊपर की ही धूल उड़ने लगेगी। नीचे की धूल तो निश्चिंत विश्राम करेगी। वह बहुत गहरी बैठ गई है; बहुत गहरी; अब वहां कोई झोंका नहीं पहुंचता है। कभी-कभी कोई झोंका वहां तक पहुंच जाता है। जब हम कहते हैं कि कोई विचार हमारे जीवन में प्रवेश करता है, कोई प्रेरणा, कोई इंसपेरेशन, कोई घटना, कोई व्यक्ति, कोई शब्द, कोई ध्वनि, कोई चोट जब हमारे जीवन में गहरी प्रवेश करती है और हमारी पर्तों को फाड़कर भीतर चली जाती है, तब उस भीतर की आवाज आती है।
 उन मित्र को नब्बे प्रतिशत की जो आवाज आ रही है, वह किसी गहरी चोट के कारण से आ रही है। लेकिन वे चोट को झुठलाने में लगे हैं। वे बड़े दुख में पड़ गए हैं। दुख भारी है। और मन में विचार आता है कि आत्महत्या कर लें।
 ध्यान रहे, जब किसी आदमी के जीवन में आत्महत्या का विचार आता है, वही क्षण संन्यास में रूपांतरित किया जा सकता है। तत्काल! क्योंकि संन्यास का अर्थ है, आत्मरूपांतरण।
 जब आदमी आत्महत्या करना चाहता है, तो उसका मतलब यह है कि इस आत्मा से ऊब गया है, इससे ऊब गया है, इसको खतम कर दूं। इसके दो ढंग हैं। या तो शरीर को काट दो; इससे आत्मा खतम नहीं होती, सिर्फ धोखा पैदा होता है। वही आत्मा नए शरीर में प्रवेश करके यात्रा शुरू कर देगी। दूसरा जो सही रास्ता है, वह यह है कि इस आत्मा को ट्रांसफार्म करो, रूपांतरित करो, नया कर लो। शरीर को मारने से कुछ न होगा, आत्मा को ही बदल डालो, वह योग है।
 इसलिए एक बहुत मजे की बात आपको कहूं, जिस देश में ज्यादा संन्यासी होते हैं, उस देश में आत्महत्याएं कम होती हैं। और जिस देश में संन्यासी कम होते हैं, उसमें उतनी ही मात्रा में आत्महत्याएं बढ़ जाती हैं।
 आप जानकर यह हैरान होंगे कि अगर अमेरिका और भारत की आत्महत्या और संन्यासियों का आंकड़ा बिठाया जाए, तो बराबर अनुपात होगा, बराबर, एक्जेक्ट! जितने लोग यहां ज्यादा मात्रा में संन्यास लेते हैं, उतने ज्यादा लोग वहां आत्महत्या करते हैं। क्योंकि आत्महत्या का क्षण दो तरफ जा सकता है। वह एक क्राइसिस है, एक संकट है। या तो शरीर को मिटाओ, या स्वयं को मिटाओ। और ये दो दिशाएं हैं।
 शरीर को मिटाने से कुछ भी नहीं होता। सिर्फ तीस-पैंतीस साल के बाद आप वहीं फिर खड़े हो जाएंगे। एक व्यर्थ की लंबी यात्रा होगी। गर्भाधारण होगा। फिर बच्चे बनेंगे। फिर शिक्षा होगी। फिर उपद्रव सब चलेगा। और फिर एक दिन आप पाएंगे कि ठीक यही क्षण आ गया, आत्महत्या का। हां, तीस-चालीस साल बाद आएगा। यह इतना समय व्यर्थ जाएगा।
 संन्यास का अर्थ है, आ गई वह घड़ी, जहां हम जैसे हैं, उससे हम तृप्त न रहें। जैसे हम हैं, अब उसी को आगे खींचने में कोई प्रयोजन न रहा। उसमें बदलाहट जरूरी है। तो स्वयं को बदल डालो।
 लेकिन नब्बे प्रतिशत मन कहता है, बदल डालो। पर वह पर्त गहरी है, नीचे की है, उसको आप अपनी नहीं मान पाते। वह जो ऊपर की पर्त है, उससे आपकी पहचान है। अभी ताजी है। वह आपको अपनी लगती है। मन का ऐसा नियम है।
 मन का ऐसा नियम है, जो ऊपर है, वह अपना मालूम पड़ता है। क्योंकि मन ऊपर-ऊपर जीता है, सतह पर, लहरों पर। जो गहरा है, वह अपना नहीं मालूम पड़ता है।
 इसलिए बहुत दफे भ्रांति होती है। जब बहुत गहरे से आवाज आती है–वह स्वयं के ही भीतर से आती है–जब बहुत गहरे से आवाज आती है, तो साधक को लगता है, कोई ऊपर से बोल रहा है। परमात्मा बोल रहा है।
 परमात्मा कभी नहीं बोलता। परमात्मा तो पूरा अस्तित्व है, वह कभी नहीं बोलता, वह सदा मौन है। लेकिन स्वयं के ही इतने भीतर से आवाज आती है कि वह लगती है, किसी और की आवाज है, इतने दूर से आती मालूम पड़ती है। हम ही अपने से इतने दूर चले गए हैं। अपने घर से हम इतने दूर चले गए हैं कि अपने ही घर के भीतर से आई हुई आवाज कहीं दूर, किसी और की आवाज मालूम पड़ती है। वह अपनी ही आवाज है, अपनी ही गहरे की आवाज है, अपनी ही गहराइयों की आवाज है। पर हमारी आइडेंटिटी, हमारा तादात्म्य होता है ऊपर की पर्त से, उसको हम कहते हैं, मैं।
 कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू भयभीत न हो। जो तू कर सकता है इस जीवन में, कर। अगले जीवन में वह तुझे अनायास मिल जाएगा।
 इसलिए भी कहते हैं, यह भी मैं आपको याद दिला दूं, कि अगर कृष्ण जैसा आदमी यह बात कह दे, तो यह बहुत गहरे प्रवेश कर जाती है। और संभावना यह है–और इसका एक नियम और एक सूत्र और एक व्यवस्था और एक तकनीक है। कृष्ण क्यों कहते हैं यह बात? महावीर क्यों कहते हैं? बुद्ध क्यों कहते हैं? क्यों दोहराते हैं ये सारे लोग कि तुम जितना करोगे, वह अगले जन्म में अनायास तुम्हें मिल जाएगा?
 वे इसलिए कहते हैं कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण जैसे व्यक्ति के संपर्क में आपके मन की जो ऊपरी पर्त है, वह खुल जाती है और भीतर तक आप सुन पाते हैं। उनकी मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का काम करती है। उनकी मौजूदगी में, आपके भीतर जो दरवाजे आप नहीं खोल पाते, खुल जाते हैं। उनकी मौजूदगी आपको बल दे जाती है, शक्ति दे जाती है, साहस दे जाती है, भरोसा दे जाती है।
 तो कृष्ण जब यह कह रहे हैं कि इस जन्म का जो है अगले जन्म में अनायास मिल जाएगा, यह बात अगर अर्जुन के मन में बैठ जाए, तो अगले जन्म में जब अनायास मिलेगा, तो उसे याद भी आ जाएगी। इसलिए भी यह बात कही जाती है। तब अगले जन्म में वह याद कर सकेगा कि निश्चित ही, आज अनायास यह घट रहा है, यह कृष्ण ने कहा था। वह पहचान पाएगा; ये शब्द उसके भीतर बैठ जाएंगे।
 शब्दों की भी गहराइयां हैं। व्यक्तियों की गहराइयों के साथ शब्दों की गहराइयां बढ़ती हैं। जब कोई आदमी कंठ से बोलता है, तो आपके कान से गहरा कभी नहीं जाता है। जब कोई आदमी हृदय से बोलता है, तो आपके हृदय तक जाता है। जब कोई आदमी प्राण से बोलता है, तो आपके प्राण तक जाता है। जब कोई आदमी आत्मा से बोलता है, तो आपकी आत्मा तक जाता है। और जब कोई व्यक्ति अपने परमात्मा से बोलता है, तो आपके परमात्मा तक जाता है।
 गहराई उतनी ही होती है आपके भीतर, जितनी कि बोलने वाले की गहराई होती है। बोलने वाले की गहराई से ज्यादा आपके भीतर नहीं जा सकता। हां, बोलने वाले की गहराई तक भी न जाए, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि कोई आत्मा से बोले, लेकिन आपके कानों तक जाए, क्योंकि आपके कानों के आगे मार्ग ही बंद है।
 तो ध्यान रखना, बोलने वाले की गहराई से ज्यादा गहरा आपके भीतर नहीं जा सकता, लेकिन बोलने वाले की गहराई से कम गहरा आपके भीतर जा सकता है।
 इसलिए पुराने दिनों में एक व्यवस्था थी कि गुरु के पास शिष्य बहुत निकट में रहे। निकट में रखने का और कोई कारण न था; सिर्फ यही कारण था कि किसी क्षण में, किसी मोमेंट में शिष्य जब इतने तालमेल में आ जाए गुरु से, इतनी हार्मनी और टयूनिंग में आ जाए कि गुरु अपनी गहरी से गहरी बात उससे कह सके। वह क्षण कब आएगा, कहा नहीं जा सकता।
 आप चौबीस घंटे प्रेम के क्षण में नहीं होते। चौबीस घंटे में कोई क्षण होता है, जब आपको लगता है, आप ज्यादा प्रेमपूर्ण हैं। चौबीस घंटे में कई क्षण ऐसे होते हैं, जब आपको लगता है कि आप ज्यादा क्रोधपूर्ण हैं।
 भिखारी सुबह आपके दरवाजे पर भीख मांगते हैं, वे जानते हैं कि सुबह दया की ज्यादा संभावना है सांझ की बजाय। सांझ को भिखारी भीख मांगने नहीं आता, क्योंकि वह जानता है कि सांझ तक आप दिनभर भीख मांगकर खुद इतने परेशान हो गए हैं कि आपसे कोई आशा नहीं की जा सकती है। सुबह आप आ रहे हैं एक दूसरे लोक से, स्वयं के भीतर की गहराइयों से, जहां मालिक का निवास है, जहां प्रभु रहता है। सुबह-सुबह के क्षण में आपमें भी थोड़ी मालकियत होती है, थोड़ा स्वामित्व होता है। आप भी भिखारी नहीं होते। सांझ तक, बाजार के धक्के, दफ्तर की दौड़, सड़कों की चोट, सब उपद्रव सहकर आप भिखारी की हालत में पहुंच जाते हैं। सांझ आपकी हैसियत नहीं होती कि दे सकें।
 इसलिए सांझ, दुनिया में किसी कोने में भीख नहीं मांगी जाती। भिखारी भी समझ गए हैं लंबे अनुभव से मनसविज्ञान, कि आदमी की बुद्धि कब काम कर सकती है दया के लिए।
 ठीक ऐसे ही गहराई के क्षण भी होते हैं। इसलिए गुरु, पुराना गुरु चाहता था कि शिष्य निकट रहे, बहुत निकट रहे। ताकि किसी ऐसे क्षण में, जब भी उसे लगे कि अभी द्वार खुला है, वह कुछ डाल दे। और वह भीतर की गहराई तक पहुंच जाए।
 कृष्ण को लगा है कि यह क्षण अर्जुन का गहरा है। क्यों? क्योंकि अर्जुन पहली दफा उत्सुक हो रहा है कुछ करने को। भय उसका उत्सुकता की वजह से ही है। अगर उत्सुक न होता, तो वह यह भी न पूछता कि कहीं मैं बिखर तो न जाऊंगा! कहीं ऐसा तो न होगा कि मेरी नाव रास्ते में ही डूब जाए! इसका पक्का अर्थ यह है कि दूसरी तरफ जाने की पुकार उसके मन में आ गई। दूसरे किनारे की खोज का आह्वान मिल गया। चुनौती कहीं स्वीकार कर ली गई है। इसीलिए तो भय उठा रहा है। इसीलिए भय उठा रहा है। नहीं तो भय भी नहीं उठाता। वह कहता कि ठीक है, आप जो कहते हैं, बिलकुल ठीक है।
 अक्सर जो लोग एकदम से कह देते हैं कि बिलकुल ठीक है, वे वे ही लोग होते हैं, जिन्हें कोई मतलब नहीं होता। मतलब हो, तो एकदम से नहीं कह सकते कि ठीक है। क्योंकि तब प्राणों का सवाल है, कमिटमेंट है। फिर तो एक गहरा कमिटमेंट है। आदमी कहता है, बिलकुल ठीक है। घर चला जाता है। अक्सर जो लोग कहते हैं, बिलकुल ठीक है बिना सोचे-समझे, बिना भयभीत हुए–और यह मामला ऐसा है कि भयभीत होगा ही कोई। यह पूरी जिंदगी के बदलने का सवाल है। यह जिंदगी और मौत का दांव है, और भारी दांव है।
 अर्जुन जब चिंतित हो गया, यह चिंतित होना शुभ लक्षण है। यह चिंता शुभ लक्षण है। इसलिए कृष्ण ने समझा कि अभी वह द्वार खुला है, अब वे उससे कह दें। कह दें उससे कि घबड़ा मत। भरोसा रख। जो तू करेगा, वह अगले जन्म में तुझे मिल जाएगा, अगर यात्रा पूरी भी न हुई तो। कुछ खोता नहीं। अगले जन्म में सुगति मिल जाती है। वैसा वातावरण मिल जाता है, जहां वह फूल अनायास खिल जाए। वैसे लोग मिल जाते हैं।
 तिब्बत में एक बहुत पुरानी योगियों की कहावत है, डू नाट सीक दि मास्टर, गुरु को खोजो मत। व्हेन दि डिसाइपल इज़ रेडी, दि मास्टर एपियर्स। जब शिष्य तैयार है, तो गुरु मौजूद हो जाता है। बहुत पुरानी, कोई छः हजार वर्ष पुरानी किताब में यह सूत्र है इजिप्त की। खोजना मत गुरु को। जब शिष्य तैयार है, तो गुरु मौजूद हो जाता है।
 क्योंकि जीवन के बहुत अंतर्नियम हैं, जिनका हमें खयाल भी नहीं होता, जिनका हमें पता भी नहीं होता। वे नियम काम करते रहते हैं। आपकी जितनी योग्यता होती है, उस योग्यता की व्यवस्था के लिए परमात्मा सदा ही साधन जुटा देता है।
 हां, आप ही उनका उपयोग न करें, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि आप कहें कि नहीं, अभी नहीं। आपका ही वह जो ऊपर का मन है, बाधा डाल दे। आपके भीतर के मन को देखकर तो अस्तित्व ने व्यवस्था जुटा दी, लेकिन आपका ऊपर का मन बाधा डाल सकता है। बुद्ध आपके गांव से गुजरें और आप कहें कि आज तो मुश्किल है। आज तो दुकान पर ग्राहकों की भीड़ ज्यादा है।
 कैसे आश्चर्य की बात है! ऐसा हुआ है। बुद्ध गांव से गुजरे हैं। पूरा गांव सुनने नहीं आया है। आखिरी वक्त; बुद्ध के पास एक आदमी भागता हुआ पहुंचा, सुभद्र। बुद्ध अपने भिक्षुओं से विदा ले चुके थे। और उन्होंने कहा कि अब मैं शांत होता हूं, शून्य होता हूं, निर्वाण में प्रवेश करता हूं। अब मैं समाधि में जाता हूं। तुम्हें कुछ पूछना तो नहीं है?
 भिक्षु इकट्ठे थे, कोई लाख भिक्षु इकट्ठे थे। उन्होंने कहा, हमने इतना पाया, हम उसको ही नहीं पचा पाए। हमने इतना समझा, हम उसको ही कहां कर पाए! अब हम विदा होते आपको और कष्ट न देंगे। हमें कुछ पूछना नहीं है। आपने सब बिना पूछे दिया है। बिना मांगे आपने बरसाया है। सलाह नहीं मांगी थी, तो भी सलाह दी है। आपके हम सिर्फ ऋणी हैं, अनुगृहीत हैं। हम सिर्फ रो सकते हैं, और कुछ कह नहीं सकते।
 बुद्ध ने तीन बार पूछा। बुद्ध का नियम था, हर बात तीन बार पूछते थे। अनुकंपा अदभुत है बुद्ध लोगों की। वे तीन बार पूछते थे। पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तो भी बुद्ध कहते, पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तो भी बुद्ध कहते, पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तब बुद्ध कहते, अब तू ही जिम्मेवार होगा अपनी नहीं का। तीन बार बहुत हो गया। तीन बार पूछकर बुद्ध वृक्ष के पीछे चले गए। आंखें बंद करके वे अपने प्राणों को विसर्जित करने लगे।
 जो लोग भी स्वयं को जान लेते हैं, उनके लिए मृत्यु अपने ही हाथ का खेल है। वे मृत्यु में ऐसे ही प्रवेश करते हैं, जैसे आप किसी पुराने मकान को छोड़कर नए मकान में प्रवेश करते हैं। आप नहीं करते ऐसा। आपको तो एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु में घसीटकर ले जाना पड़ता है, बड़ी मुश्किल से। क्योंकि आप पुराने मकान को ऐसा जोर से पकड़ते हैं कि छोड़ते ही नहीं। हालांकि वह मकान बेकार हो चुका है; सड़ चुका है; अब उसमें जीवन संभव नहीं है। मृत्यु आती ही तभी है, जब जीवन एक मकान में असंभव हो जाता है।
 लेकिन आप कहते हैं, चाहे असंभव हो जाए, चाहे मुझे अस्पताल में उलटा-सीधा लटका दो; चाहे मेरी आंख बंद रहे, नलियां मेरी नाक में पडी रहें आक्सीजन की, लेकिन मुझे बचाओ। देखा है अस्पताल में! लटके हैं लोग! सिर नीचा है, पैर ऊपर हैं। वजन बंधे हैं, नाक में नलियां लगी हैं। इंजेक्शन दिए जा रहे हैं। मगर वे कहते हैं कि बचाओ। मकान सड़ गया है बिलकुल; बचने के योग्य नहीं। मौत कृपा करती है कि चलो, ले चलें। तुम्हें नया मकान दे दें। वे कहते हैं, पुराना मकान। पता नहीं पुराना भी छूट जाए और नया न मिले! बेहोश पड़े रहेंगे, लेकिन बचाओ। मरना नहीं है।
 जो आदमी जान लेता है, वह अपने को सहज, सहज, मकान पूरा हुआ तो वह मौत को खुद कहता है, अब ले चल। यह मकान बेकार हो गया।
 तो बुद्ध अपने को विसर्जित करने लगे। नए मकान में अब वे जाने को नहीं हैं, क्योंकि अब नए मकान का कोई सवाल नहीं रहा। मकानों की जरूरत मन को रहती है। अब मन विसर्जित हो चुका है। अब बुद्ध परिनिर्वाण में प्रवेश कर रहे हैं। महाशून्य में, अस्तित्व में उनकी यात्रा हो रही है। सरिता सागर में गिर रही है, सदा के लिए।
 तब सुभद्र नाम का आदमी भागा हुआ पहुंचा और उसने कहा कि बुद्ध कहां हैं? वे दिखाई नहीं पड़ते? लोग रो रहे हैं। क्या उनका अंत हो गया? एक भिक्षु ने कहा, अंत तो नहीं हुआ है। लेकिन वे अंत में प्रवेश कर रहे हैं। पर, सुभद्र ने कहा, मुझे कुछ पूछना है। उन लोगों ने कहा, तूने बड़ी देर कर दी सुभद्र! और जहां तक हमें याद है, बुद्ध तेरे गांव से कम से कम तीन या चार बार गुजरे होंगे, तब तू नहीं आया!
 उसने कहा, दुकान पर बड़ी भीड़ थी। बुद्ध आते थे जरूर, लेकिन कभी ग्राहक होते; कभी पत्नी बीमार पड़ जाती; कभी बेटे को कुछ काम आ जाता; कभी शादी हो जाती। कभी तो ऐसा भी होता कि बहुत धूप होती, तो सोचता कि कौन जाए इतनी धूप में; कभी शीतकाल में आएंगे, तब चला जाऊंगा। फिर कभी शीतकाल में भी आए, तो इतनी सर्दी होती कि घर में बिस्तर में पड़े रहने का मन होता। सोचता कि कौन जाए। अब की दफा जब धूप में आएंगे, तब चला जाऊंगा। ऐसे ही तीस साल बुद्ध मेरे गांव से निकले जरूर। मेरे गांव के पास से निकले। मैं उन गांवों से निकला जिनमें बुद्ध ठहरे हुए थे। लेकिन नहीं; मैंने सोचा, फिर, फिर मिल लेंगे। आज मुझे खबर मिली कि बुद्ध तो विसर्जित हो रहे हैं। तो मैं भागा हुआ आया हूं। मुझे पूछ लेने दें।
 भिक्षुओं ने कहा, सुभद्र, इसमें किसका कसूर है?
 लेकिन बुद्ध की अनुकंपा, कि बुद्ध वृक्ष के पास से उठकर बाहर आ गए। और उन्होंने कहा कि मेरे जीते जी कोई आदमी खाली हाथ लौट जाए, पूछने आए और लौट जाए! अभी मैं सुन सकता था। तो मेरे ऊपर सदा के लिए एक इल्जाम रह जाएगा कि कोई जानने आया था, और मेरे पास था, जो मैं उसे कह देता। कोई हर्ज नहीं सुभद्र, तीस साल में भी आया, तो जल्दी आ गया। कुछ लोग तीस जन्मों में भी नहीं आते!
 कृष्ण एक शुभ क्षण देखकर अर्जुन को कहते हैं कि उसके भीतर चली जाए यह बात। नहीं; कुछ नष्ट नहीं होगा अर्जुन! तू जो भी कमाएगा, वह तेरी संपत्ति बन जाएगी।
 और ध्यान रहे, और सब तरह की संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं, सिर्फ योग में कमाई गई संपत्ति अगले जन्म में यात्रा करती है। और सब संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं। कमाया हुआ धन छूट जाएगा। बनाए हुए मकान छूट जाएंगे। इज्जत, यश छूट जाएगा। लेकिन जो बहुत गहरे तल पर किए गए कर्म हैं, शुभ या अशुभ; योग के पक्ष में या योग के विपक्ष में–पक्ष में, तो संपत्ति बन जाएगी; विपक्ष में, तो विपत्ति बन जाएगी। अगर योग के विपक्ष में जीए हैं, तो दिवालिया निकलेंगे और अगले जन्म में अनायास पाएंगे कि दिवालिया हैं। और योग के पक्ष में कुछ किया है, तो एक महासंपत्ति के मालिक होकर गुजरेंगे और अगले जन्म में पाएंगे कि सम्राट हैं।
 भिखारी के घर में भी योग की संपत्ति वाला आदमी पैदा हो, तो सम्राट मालूम होता है। और सम्राट के घर में भी योग की संपत्ति से हीन आदमी पैदा हो, तो भिखारी मालूम होता है। एक आंतरिक संपदा, उसकी ही बात कृष्ण ने कही है और अर्जुन को भरोसा दिलाया है।
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Mahabharat Sutra *महाभारत का "नव सार सूत्र" सबके जीवन में उपयोगी सिद्ध होगा

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