Osho
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ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 22, भाग 2
*प्रश्न :*
*_ भगवान श्री, एक छोटा-सा प्रश्न है। अनन्य प्रेम को यहां मूल संस्कृत में कहा गया है, आसक्तमना। मेरे में आसक्त मन वाले का कैसा आध्यात्मिक अर्थ होगा? इसे स्पष्ट करें।_*
*ओशो :* शब्द तो वही रहते हैं। रुख बदल जाए, तो सब बदल जाता है।
परमात्मा में आसक्त मन वाला। और परमात्मा में आसक्त मन वाला जब हम कहेंगे, तो आसक्त शब्द का वही अर्थ न रह जाएगा, जो धन में आसक्ति वाला, यश में आसक्ति वाला।
शब्द तो बदल जाते हैं तत्काल, जैसे ही उनका आयाम बदलता है। हमारे पास शब्द तो थोड़े हैं। और हमारे सब शब्द जूठे हैं। कृष्ण के पास भी कोई उपाय नहीं है नए शब्दों के बोलने का। हमारे ही शब्दों का उपयोग करना है। अगर कहेंगे प्रेम, तो हमारे मन में जो खयाल आता है, वह हमारे ही प्रेम का आता है। अगर कहेंगे आसक्त, तो हमारे मन में जो अर्थ आता है, वह हमारी ही आसक्ति का आता है। लेकिन जो शर्त लगी है, परमात्मा में आसक्त मन वाला!
परमात्मा में कौन होता है आसक्त?
तो कृष्ण ने पहले बहुत व्याख्या की है उसकी, कि जो सब भांति अनासक्त हो गया, वही परमात्मा में आसक्त होता है। परमात्मा में आसक्ति का मतलब है, पूर्ण अनासक्ति। पूर्ण अनासक्ति न हो, तो परमात्मा में आसक्ति न होगी। जरा-सी भी आसक्ति कहीं बची हो, तो परमात्मा में आसक्ति न होगी।
तो चाहे हम कहें, आसक्ति। आसक्ति का अर्थ है, जिसमें हम आकर्षित हो रहे हैं; जिसमें हम खींचे जा रहे हैं; जिसमें हम बुलाए जा रहे हैं; जिसमें हम पुकारे जा रहे हैं; जिसके बिना हम न जी सकेंगे। तो चाहे कहें आसक्ति, चाहे कहें प्रेम, चाहे कहें अनन्य राग, चाहे कहें भक्ति; इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इतना ही प्रयोजन है कि जो परमात्मा की तरफ खिंचा जा रहा है; जिसके आकर्षण का बिंदु परमात्मा हो गया। और परमात्मा का क्या अर्थ होता है?
परमात्मा का अर्थ है, सब कुछ। जो इस सब को घेरे हुए है, जो इस सब के भीतर छिपा है, वह निराकार और अरूप जो सब रूपों में व्याप्त है, उसकी तरफ जो आकर्षित हो गया। जो अब बूंद में आकर्षित नहीं है, बूंद में छिपे महासागर में आकर्षित है। जो व्यक्ति में आकर्षित नहीं है, व्यक्ति के भीतर छिपे अव्यक्ति में आकर्षित है। जो अब अगर अपनी पत्नी को भी प्रेम कर रहा है, तो पत्नी को प्रेम नहीं कर रहा है, पत्नी में छिपे परमात्मा को प्रेम कर रहा है। अब जो सब तरफ, उस परमात्मा से ही खींचा जा रहा है और बुलाया जा रहा है। जो सब भांति उसी की तरफ दौड़ रहा है, उसी महासागर के मिलन की तरफ। तो मुझ परमात्मा में आसक्त मन वाला। तो प्रेम कहें, आसक्ति कहें, इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क इससे पड़ता है कि आप उसका उपयोग क्या कर रहे हैं।
शब्द अपने आप में अर्थहीन हैं। सब कुछ उपयोग पर निर्भर करता है। शब्दों में खुद कोई अर्थ नहीं है। अर्थ तो हम डालते हैं और हम देते हैं। और अर्थ बदल जाता है तत्काल, जैसे ही शब्द का आयाम बदलता है, तब अर्थ बदल जाता है।
यह शर्त है कृष्ण की कि परमात्मा की तरफ आ रहे मन वाला अगर तू है, तो मुझे सुन। क्योंकि वे जो कहने जा रहे हैं, वह जो परमात्मा की तरफ पीठ करके चल रहा है, वह न सुन सकेगा; उसके किसी काम का नहीं है। वह बहरे से बात करनी हो जाएगी। उसका कोई अर्थ नहीं है।
अभी मैं एक झेन फकीर का जीवन पढ़ता था। एक युवक आया है उस फकीर के पास और उस युवक ने कहा कि मैंने सुना है, बुद्ध ने कहा है कि मेरी बात सब के उपयोग की है। धर्म सब के लिए है। लेकिन, उस युवक ने कहा, इसमें मुझे बड़ी शंका होती है। मुझे शंका होती है कि बुद्ध के वचन अगर सब के उपयोग के लिए हैं, तो बहरों का क्या होगा? क्योंकि बहरे तो सुन ही न सकेंगे, तो उनके लिए उपयोग कैसे होगा? बुद्ध खड़े भी रहें, अंधे तो देख ही न सकेंगे, तो सत्संग कैसे होगा?
उस फकीर ने क्या किया? उस फकीर ने वही किया, जो फकीरों को करना चाहिए। पास में पड़ा था एक डंडा, उसने जोर से उस आदमी के पेट में डंडे का जोर से धक्का दिया। उस आदमी ने चीख मारी। उसने कहा, आप यह क्या करते हैं? तो उस फकीर ने कहा, अहा! मैं तो समझता था कि तुम गूंगे हो। तो तुम गूंगे नहीं हो, बोलते हो! जरा मेरे पास आओ। तो वह आदमी डरता हुआ पास आया। उसने कहा, अहा! मैं तो सोचता था कि तुम लंगड़े हो। लेकिन तुम तो चलते हो!
उस आदमी ने कहा, इन बातों से क्या मतलब जो मैं पूछने आया हूं! तो उस फकीर ने कहा कि तुम इसकी फिक्र छोड़ो, दूसरे अंधे, लूले और गूंगों की। अगर तुम गूंगे नहीं हो, लूले नहीं हो, अंधे नहीं हो, तो कम से कम तुम लाभ ले लो। और जब कोई अंधे आएंगे, तब उनसे मैं निपट लूंगा। जब कोई गूंगे आएंगे, तब उनसे मैं निपट लूंगा। तुम फिक्र छोड़ो। इतना तय है कि तुम अंधे, लूले, लंगड़े, गूंगे नहीं हो। तुमने क्या लाभ लिया बुद्ध के वचनों का? उसने कहा, अभी तक तो कुछ नहीं लिया! तो उस फकीर ने कहा कि पागल, तू फिक्र कर रहा है उनकी, जो न ले सकेंगे; और तू अपनी फिक्र कब करेगा, जो ले सकता है!
तो उस फकीर ने कहा कि जो गूंगे हैं, वे तो गूंगे हैं ही; और जो बहरे हैं, वे तो बहरे हैं ही; लेकिन तेरे बहरेपन को हम क्या करें? तेरे गूंगेपन को हम क्या करें?
कृष्ण, अर्जुन का गूंगापन, बहरापन टूट जाए, उसकी पीठ मुड़ जाए, वह परमात्मा की तरफ उन्मुख हो जाए–क्योंकि अभी तक अर्जुन की जो उन्मुखता है, वह युद्ध से बचने की है। किसी तरह युद्ध से बच जाए। यह हिंसा न हो। बस, इससे ज्यादा उसकी उत्सुकता नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है, अर्जुन किसी ब्रह्मज्ञान को लेने कृष्ण के पास गया नहीं था। ये कृष्ण जबर्दस्ती उसको ब्रह्मज्ञान दिए देते हैं! कारण है। क्योंकि कृष्ण के पास जो है, वही दे सकते हैं। आप अगर अमृत के सागर के पास विष लेने भी जाएं, तो भी अमृत का सागर क्या कर सकता है? वह आपको अमृत ही दे देगा। भला आप पीछे पछताएं कि गलत जगह पहुंच गए। फंस गए!
अर्जुन तो एक बहुत छोटा-सा सवाल लेकर गया था। उसने सोचा भी न होगा कि इतनी बड़ी गीता उससे पैदा होगी। उसने सोचा भी न होगा कि कृष्ण ज्ञान की इतनी गहराइयों में उसे ले जाएंगे।
मगर कृष्ण की भी अपनी मजबूरी है। कृष्ण के पास जो है, वे वही दे सकते हैं। आगे वे कुछ ऐसी गहन बातें कहने वाले हैं, जो कि अर्जुन अगर पूरी तरह उन्मुख हो, तो ही समझ पाएगा, इसलिए यह शर्त लगाई है।