_ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 7, प्रवचन 25, भाग 1_
*【आध्यात्मिक बल】*
*भगवानुवाच :*
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।। 10।।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।। 10।।
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। 11।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। 11।।
कृष्ण बोले : *_ हे अर्जुन, तू संपूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं।_*
*_ और हे भरत श्रेष्ठ, मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूं, और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूं।_*
*ओशो :* परमात्मा स्वयं अपना परिचय देना चाहे, तो निश्चित ही बड़ी कठिन बात है। आदमी भी अपना परिचय देना चाहे, तो कठिन हो जाती है बात। और परमात्मा अपना देना चाहे, तो और भी कठिन हो जाती है।
एक तो इसलिए कठिन हो जाती है कि परमात्मा भी अपना स्वयं परिचय दे, तो सदा ही अधूरा होगा; पूरा नहीं हो सकता। अस्तित्व इतना विराट है, और शब्द इतने छोटे पड़ जाते हैं। परमात्मा भी कहना चाहे, तो कहकर पाएगा कि जो कहना था, वह नहीं कहा जा सका है। कहना चाहा था, वह छूट गया है। और जो कहा गया है, वह बहुत दूर की खबर लाता है।
कृष्ण को भी वैसी ही कठिनाई है। और जब भी किसी व्यक्ति के भीतर से परमात्मा ने स्वयं को अभिव्यक्त किया है, तब सदा ही ऐसी ही कठिनाई हुई है। कृष्ण की पीड़ा हम समझ सकते हैं। वे जो उदाहरण ले रहे हैं, वे जिन बातों के सहारे समझाने चल रहे हैं, वे बातें बहुत साधारण हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं, कोई विकल्प नहीं। आदमी से बात करनी हो, तो आदमी की भाषा में ही बात करनी पड़ेगी।
इशारे करते हैं। इशारों से ज्यादा नहीं है यह बात। और जो आदमी इशारे को पकड़ लेगा, वह भटक जाएगा। और हम सबकी आदत इशारों को पकड़ने की है। हम मील के पत्थरों को छाती से लगाकर बैठ जाते हैं, यह सोचकर कि यह मंजिल हुई। हालांकि हर मील का पत्थर, केवल एक तीर का इशारा है आगे की तरफ, कि मंजिल आगे है।
और मैं चांद को अंगुली से बताऊं, तो बहुत डर है कि अंगुली पकड़ ली जाए और चांद समझ ली जाए। यद्यपि अंगुली चांद नहीं है; लेकिन अंगुली चांद की तरफ इशारा कर सकती है। लेकिन यह इशारा उसी की समझ में आएगा, जो अंगुली को छोड़ दे और भूल जाए, और चांद की तरफ देखे। और मैंने अंगुली उठाई चांद की तरफ, और आपने सोचा कि शायद मैं अंगुली उठा रहा हूं, तो अंगुली में कुछ होगा। और आप मेरी अंगुली से अटक गए, तो आप चांद तक कभी भी न पहुंच पाएंगे।
अंगुली चांद को बताती है, चांद नहीं है। उसे छोड़ ही देना पड़ेगा। उसे भूल ही जाना पड़ेगा। उसे तो बिलकुल पीछे छोड़कर जब आंख आकाश की तरफ उठेगी, वहां तो कोई अंगुली न होगी, वहां तो चांद होगा।
तो कृष्ण ये जो बातें कह रहे हैं, वे अंगुलियां हैं। अधूरे इशारे हैं, आंशिक। उनमें सूचना है। जो उनको पकड़ लेगा, वह खतरे में पड़ेगा। जो उनको छोड़ देगा, उनके ऊपर उठेगा, पार जाएगा, वह इशारे को समझने में समर्थ हो सकता है।
कल रात्रि भी उन्होंने कुछ इशारे किए। उसमें एक इशारा छूट गया था, वह भी हम बात कर लें।
उन्होंने कहा, पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं।
पुरुषों में पुरुषत्व, पुरुष नहीं। पुरुषत्व क्या है? यह संस्कृत का शब्द बहुत कीमती है। और इस शब्द की थोड़ी-सी पर्तों को उघाड़ना जरूरी है।
हम सभी जानते हैं कि पुर कहते हैं नगर को, बस्ती को। जिन्होंने पुरुष शब्द का उपयोग किया है, उन्होंने कहा है कि यह आदमी तो एक नगर है, एक पुर है। और इसके भीतर एक मालिक बस रहा है, वह पुरुष है। इस नगरी के भीतर जो छिपा है, वह।
तो पुरुष से अर्थ, स्त्री के विपरीत जो है, वैसा नहीं है। पुरुष का अर्थ मेल नहीं है। पुरुष तो स्त्री के भीतर भी है। स्त्री और पुरुष, जैसा हम प्रयोग करते हैं, ये तो नगर की खबर देते हैं। स्त्री की बस्ती अलग है, उसका शरीर अलग है। और जिसे हम पुरुष कहते हैं, उसकी भी बस्ती अलग है और शरीर अलग है। लेकिन भीतर जो बस रहा है पुरुष, उस नगर के बीच में जो बस रहा है मालिक, वह एक है।
इसलिए कई को यह खयाल हो सकता है कि कृष्ण ने स्त्रियों की जरा भी बात न कही। कुछ तो कहना था कि स्त्रियों में मैं कौन! ज्यादती मालूम पड़ती है। सबकी बात कर रहे हैं, और स्त्री कोई छोटी घटना नहीं है कि उसकी बात छोड़ी जा सके। जिसे हम पुरुष कहते हैं, उससे तो थोड़ी बड़ी ही घटना है। क्योंकि जीवन के इस सृजन में पुरुष तो सांयोगिक है, एक्सिडेंटल है; स्त्री आधारभूत है।
लेकिन कृष्ण ने स्त्री की बात नहीं की, जानकर, क्योंकि पुरुष में स्त्री सम्मिलित हो गई है। अगर नगर की बात करते, तो फासला था स्त्री और पुरुष का। वे तो उसकी बात कर रहे हैं, जो नगर के बीच में बसा है। स्त्री के भीतर भी वह पुरुष है; पुरुष के भीतर भी वह पुरुष है।
फिर भी पुरुष की बात नहीं कर रहे हैं। कह रहे हैं, पुरुषों में पुरुषत्व। जैसे कि हजारों फूल को निचोड़कर हम थोड़ा-सा इत्र बना लें। ऐसा ही समस्त पुरुष जहां-जहां हैं, उनके भीतर जो पुरुषत्व है, वह जो निचोड़ है, वह जो इत्र है, वह मैं हूं।
यह भी सोचने जैसा है। क्योंकि जब हम कहते हैं पुरुष, तो एक पर्टिक्युलर, एक विशेष व्यक्तित्व का खयाल आता है। जब हम कहते हैं पुरुषत्व, तो युनिवर्सल, सार्वभौम सत्य का खयाल आता है। जब हम कहते हैं पुरुष, तो सीमा बनती है; और जब हम कहते हैं पुरुषत्व, तो असीम हो जाता है।
यूनान में प्लेटो ने जिसे आइडिया कहा है, प्रत्यय कहा है। पुरुषत्व एक प्रत्यय है, एक आइडिया है। जब हम कहते हैं प्रेमी, तो एक सीमा बन जाती है। लेकिन जब हम कहते हैं प्रेम, तो सब सीमाएं टूट जाती हैं, तब असीम हो जाता है सब। जब हम कहते हैं पुरुष, तो एक रेखा खिंच जाती है चारों ओर। जब हम कहते हैं पुरुषत्व, तो विराट आकाश की तरह सब विस्तीर्ण हो जाता है।
पुरुषत्व की कोई सीमा नहीं है। पुरुष आएंगे और जाएंगे, पुरुष बनेंगे और मिटेंगे। पुरुषत्व तो शाश्वत है। शक्लें बदलेंगी, घर बदलेंगे, नगर बसेंगे और उजड़ेंगे। आज आपका एक नाम है, पिछले जन्म में दूसरा था, अगले जन्म में और तीसरा होगा। कितने-कितने पुरुष होने का आपको खयाल पैदा होगा कि मैं यह हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं। लेकिन भीतर वह जो निर्गुण, वह जो भीतर निराकार है, वह एक है।
इसलिए भी कहा पुरुषत्व। जब हम लहरों की बात करते हैं, तो अक्सर डर होता है कि सागर कहीं भूल न जाए। कृष्ण यह कह रहे हैं कि लहरों में मैं सागर। लहर भला दिखाई पड़ती हो, लेकिन सिर्फ दिखाई पड़ती है, एपियरेंस है, सिर्फ एक आभास है। सत्य तो सागर है, जो नीचे है।
बड़ी मजे की बात है, सागर के किनारे जाएं, तो लहरें ही दिखाई पड़ती हैं, सागर कभी दिखाई नहीं पड़ता। अक्सर आप कहते हैं कि मैं सागर के दर्शन करके आ रहा हूं। लेकिन गलत कहते हैं। कहना चाहिए, लहरों के दर्शन करके आ रहा हूं। सागर तो दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई तो लहरें पड़ती हैं। फिर भी आप कहते हैं कि सागर का दर्शन करके आ रहा हूं। इसी खयाल से कि लहर की क्या गिनती करनी! लहर तो आप देख भी नहीं पाए और मिट गई होगी, और दूसरी बन गई। जो मिट गई लहर, उसमें भी जो था, और जो बन गई लहर, उसमें भी जो है–हालांकि वह आपको दिखाई नहीं पड़ा है। लेकिन आप खबर यही देते हैं कि मैं सागर के दर्शन करके आ रहा हूं।
तो कृष्ण लहरों की बात नहीं कर रहे हैं; वे सागर की बात कर रहे हैं। वे पुरुषों की बात नहीं कर रहे, पुरुषत्व की बात कर रहे हैं। जिसके ऊपर सारा खेल निर्मित होता है। एक रूप, दूसरा रूप, हजार रूप वह पुरुषत्व लेता चला जाता है; और फिर भी अरूप है। न मालूम कितने आकार बनते हैं और विसर्जित होते हैं, फिर भी वह निराकार है।
तो पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं!
इस सूत्र में भी उन्होंने कुछ बातें कही हैं, और कुछ कीमती बातें कही हैं। कहा है, वासना से रहित, काम से रहित वीरों का वीर्य हूं। वासना से रहित, कामना से रहित वीरत्व हूं, वीरता हूं।
आदमी वासना में डूबकर बड़े वीरता के कार्य कर सकता है। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मनुष्य के भीतर वह जो वीर्य की ऊर्जा घटित होती है, मैं तब वह हूं, जब वहां काम न हो, वासना न हो।
आपको खयाल दिलाना चाहूंगा। महावीर का जन्म का नाम वर्द्धमान था। बाद में दिया गया नाम, महावीर। और महावीर नाम दिया गया, उस वीरता की वजह से, जिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। महावीर किसी से लड़े नहीं। लड़ने की बात दूर, पांव फूंककर रखा कि कोई चींटी न दब जाए। किसी से कोई स्पर्धा न की, किसी से कोई प्रतियोगिता न की। कैसी वीरता है उनकी?
अगर महावीर को हम देखेंगे, तो उनके चारों तरफ कोई भी तो घटना घटती हुई मालूम नहीं पड़ती, जिसमें कि वीरता का पता चलता हो। न युद्ध के मैदान पर लड़ते हैं, न तलवारों-भालों के बीच में खड़े होते हैं। कैसे वीर होंगे! लेकिन इस मुल्क ने उनको महावीर कहा। इस मुल्क ने इस सूत्र की वजह से महावीर कहा। वासना बिलकुल नहीं है, फिर एक वीर्य का नव उदय हुआ है। उस वीर्य को हम थोड़ा पहचानें कि वह कैसा है।
महावीर साधना में लगे। कठोर तपश्चर्या में डूबे। भूल गए जगत को, याद रखा अपने को ही। नग्न खड़े होते थे गांव के बाहर। लोग सताने लगे।
एक दिन सुबह ऐसी घटना हुई। एक ग्वाले ने आकर अपनी गायों को वहां चराने के लिए छोड़ा। फिर उसे कुछ काम आ गया, तो उसने खड़े हुए महावीर से कहा कि सुनो! जरा मेरी गायों को देखते रहना, मैं अभी लौटकर आता हूं। जल्दी में था; उसने यह भी फिक्र न की कि यह नग्न खड़ा हुआ साधु कुछ बोला नहीं। या सोचा होगा कि मौन सम्मति का लक्षण है; चला गया।
दोपहर जब वापस लौटा, तो महावीर तो अपने दूसरे ही लोक में थे। लौटा, तब तक गाएं चरती हुई दूर निकल गई थीं। महावीर से बहुत पूछा, वे कुछ न बोले। आंख बंद किए खड़े थे, खड़े रहे। सोचा कि या तो यह आदमी पागल है, या चालाक है। गाएं या तो चोरी चली गईं; इस आदमी का हाथ है कुछ। और या फिर यह आदमी पागल है, या गूंगा है, या बहरा है।
वह गायों को ढूंढ़ने गया, जंगलभर में घूम आया, लेकिन गाएं न मिलीं। और जब सांझ महावीर के पास से निकलता था, तो गाएं चरकर लौट आई थीं और महावीर के पास वापस बैठी हुई थीं। तब तो पक्का शक हो गया। सोचा कि यह आदमी बेईमान है। मुझे धोखा दिया। गायों को छिपाए रहा। अब रात में लेकर निकल जाएगा।
उसने महावीर को गालियां दीं। मारा। कान में लकड़ियों की खूंटियां ठोंक दीं। क्योंकि यह देखकर कि तू समझ रहा है कि तू बहरा है; सुनता नहीं। तो हम तेरे बहरेपन को पूरा किए देते हैं! कान में उसने खूंटियां ठोंक दीं। खून, लहूलुहान, महावीर के कान से खून बहने लगा। वह खूंटियां ठोंककर अपनी गायों को लेकर चला गया।
मीठी कथा है कि देवता पीड़ित और परेशान हुए। और इंद्र ने आकर महावीर से कहा कि क्षमा करें! हमें आज्ञा दें, ताकि हम आपकी रक्षा कर सकें। ऐसा दुबारा न हो, अन्यथा बदनामी हमारी होगी कि भले लोग जमीन पर थे और महावीर के कान में खूंटियां ठोंक दी गईं! हमें आज्ञा दें।
महावीर ने आंख खोली और कहा, वह ग्वाला भी अपने ढंग से मुझे विचलित करने आया था; तुम अपने ढंग से मुझे विचलित करने आए हो। मुझे छोड़ दो मुझ पर। जो भी होना है, मुझ अकेले पर होने दो। जन्मों-जन्मों बहुत तरह के साथ मैंने लिए, सब साथ व्यर्थ गए। अब मैं अकेला हूं। जन्मों-जन्मों न मालूम कितने कंधों पर हाथ रखे, और सोचा कि वे साथी बनेंगे; कोई साथी कभी बना नहीं। अब मैं अकेला हूं।
अब यह वीर्य, यह वीरता दिखाई नहीं पड़ेगी बाहर किसी युद्ध के मैदान में। लेकिन युद्धों में जो वीर हैं, वे बच्चे हैं। महावीर की वीरता यह है कि वे कहते हैं, अब संगी और साथी न बनाऊंगा। अब अकेला काफी हूं। जन्मों-जन्मों बहुत संगी-साथी बनाए, सब व्यर्थ हो गए। पाया आखिर में कि अकेला हूं। अब मुझे तुम अकेला ही होने दो। और एक तरह से वह विचलित करने आया था; तुम दूसरी तरह से विचलित करने आए हो।
इंद्र ने कहा, आप हमें गलत न समझें। हम आपको विचलित करने नहीं; सिर्फ रक्षा करने आए हैं।
महावीर ने कहा कि जिन्होंने भी मेरे लिए सदा वचन दिए रक्षा करने के और जिन्होंने कहा, हम रक्षा करेंगे, वे ही थोड़े दिन में मेरे कारागृह बन गए। जिन्होंने भी कहा था कि हम रक्षा करेंगे, जिन्होंने भी कहा था कि हम साथ देंगे, संगी बनेंगे, दुख से बचाएंगे, आखिर में मैंने पाया कि वे ही मेरे दुख के कारण बने, और वे ही मेरे कारागृह की दीवालें बने। अब नहीं। अब मैं अकेला काफी हूं। अब सुख हो कि दुख, मैं अकेला काफी हूं। तुम मुझे मुझ पर छोड़ दो।
महावीर ने कहा है, एक ही वीरता है इस पृथ्वी पर, अकेले होने का साहस–दि करेज टु बी अलोन।
बहादुर से बहादुर आदमी भी अकेला नहीं हो सकता। कम से कम तलवार तो साथ में रखता ही है। इसलिए जिसके हाथ में तलवार देखें, समझ लेना कि भीतर कायर छिपा है। नहीं तो तलवार किसके लिए! महावीर नग्न खड़े हैं; हाथ में एक लकड़ी का टुकड़ा भी नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, जिसकी वासना हट गई, जिसका काम हट गया, उसमें मैं वीर्य हूं। उसमें मैं बल हूं। उसका मैं बल हूं।
इसमें एक बात और समझ लेने जैसी है। जहां भी कामवासना है, वहां वीर होना उसी तरह आसान है, जैसे किसी आदमी को शराब पिला दी जाए और लड़ने को भेज दिया जाए। नशे में बहादुर हो जाना आसान है, क्योंकि नशे में आदमी मूर्च्छित होता है। इसलिए हाथियों को जब युद्ध पर भेजते हैं, तो शराब पिलाकर भेजते हैं। क्योंकि मरने का खयाल ही नहीं रह जाता; होश ही नहीं रह जाता।
कामवासना भी एक जहर है, एक इंटाक्सिकेंट है। और जब आप कामवासना से भरते हैं, तो कामवासना से भरा हुआ आदमी आग लगे मकान में प्रवेश कर सकता है।
तुलसीदास की कहानी हम सबने सुनी है। कामवासना से भरा हुआ आदमी नदी में मुर्दे को हाथ का सहारा लगाकर पार हो गया। उसे पता न चला कि मुर्दा है! उसने समझा कि कोई लकड़ी का टुकड़ा है, इसके सहारे मैं पार हो जाऊं।
तुलसीदास बरसा की अंधेरी रात में छज्जे से लटके हुए सांप को रस्सी समझकर ऊपर चढ़ गए! रस्सी दिखाई पड़ी; सांप दिखाई न पड़ा। आंखें अंधी थीं। वासना ही क्या जो अंधा न कर जाए!
कोई कह सकता है कि बड़े बहादुर रहे होंगे तुलसीदास। सांप को पकड़कर चढ़ गए; कम बहादुर हैं! लेकिन तुलसीदास नहीं चढ़े सांप को पकड़कर। सांप को पकड़कर वासना चढ़ी। और वासना अंधी है। उसमें कोई बहादुरी नहीं होती। तुलसीदास नहीं चढ़े सांप को पकड़कर। तुलसीदास को सांप दिख जाता, तो भाग खड़े होते। वह दिखाई नहीं पड़ा। आंखें अंधी थीं। जब आंखें खुलीं, तब पता चला कि क्या किया है!
तीव्र वासना के क्षण में आप मूर्च्छित होते हैं, बेहोश होते हैं। बेहोशी में बल का कोई अर्थ नहीं है। पागल होते हैं। पागलपन में बल का कोई अर्थ नहीं है।
इसलिए कृष्ण उसे काट देते हैं। वे कहते हैं, कामवासना को छोड़कर, बलवानों का मैं बल हूं।
और भी एक बात कहते हैं, इसी संदर्भ में। यह भी कहते हैं कि जो धर्म से भरा है, उसकी मैं कामवासना भी हूं। ये उलटे दिखाई पड़ेंगे वक्तव्य। बलवान के लिए कहा, जो कामवासना से रहित है, उसका मैं बल हूं। लेकिन तब सवाल उठ सकता है कि फिर यह कामवासना का क्या होगा? कृष्ण कहते हैं, कामवासना भी मैं हूं, उसकी, जो धर्म से भरा है। इसका क्या अर्थ होगा? धर्म से भरी कामवासना का क्या अर्थ होगा?
जैसे ही व्यक्ति के जीवन में धर्म उतरता है, वैसे ही कामवासना वासना नहीं रह जाती। वैसे ही काम, सेक्स, यौन, यौन नहीं रह जाता। इसे थोड़ा समझना जरूरी है।
कुछ ऐसा है कि जिस व्यक्ति के जीवन में धर्म का अवतरण हुआ, उस व्यक्ति के जीवन का सभी कुछ धार्मिक हो जाता है। धर्म इतना डुबाने वाला है कि सिर्फ आपकी बुद्धि को ही डुबाएगा, ऐसा नहीं; सिर्फ आपके हृदय को ही डुबाएगा, ऐसा नहीं; आपके शरीर को भी डुबा लेगा। धर्म इतनी बड़ी घटना है कि घटे तो आप पूरे के पूरे उसमें डूब जाएंगे। आपकी कामवासना कहां बचेगी! वह भी उसमें डूब जाएगी। कहना चाहिए कि धर्म का अमृत ऐसा है कि अगर जहर की बूंद भी उसमें पड़ जाए, तो अमृत हो जाएगी।
हमें समझना बहुत कठिन होगा। हमारी सामान्य समझ तो यह कहती है कि वह सारा का सारा अमृत जहर हो जाएगा, अगर एक बूंद जहर की पड़ गई। क्योंकि जहर से ही हम परिचित हैं; अमृत से हम परिचित नहीं हैं। हमने जहर ही जाना है; हमने अमृत जाना नहीं है। सच बात तो यह है कि अमृत की कसौटी और परीक्षा ही यही है कि वह जहर को अमृत बना पाए। अन्यथा उसकी कोई कसौटी नहीं, कोई परीक्षा नहीं।
धर्म की कसौटी ही यही है कि आपके भीतर जो जहर है, वह अमृत हो जाए। आपके भीतर जो यौन है, जो वासना है, कामना है, वह भी राम-अर्पित हो जाए, वह भी प्रभु-समर्पित हो जाए। वह ऊर्जा भी ब्रह्म की ऊर्जा बन जाए।
क्या होता होगा? जब कोई व्यक्ति धर्म से भरता होगा, तो उसकी कामवासना की गति क्या होती होगी? उसकी कामवासना की गति आमूल बदल जाती है।
अभी आप कामवासना से भरते हैं अचेत होकर, मूर्च्छित होकर, विक्षिप्त होकर। निर्णय करते हैं हजार बार कि कामवासना से बचूंगा, बचूंगा, बचूंगा! और आप निर्णय करते रहते हैं, और भीतर वासना संगृहीत होती चली जाती है। और एक क्षण आता है, आपके निर्णय का पत्थर उठाकर फेंक दिया जाता है और वासना का झरना फूट पड़ता है। फिर कल से आप पछताएंगे और फिर पछताकर यही करेंगे कि फिर वासना को दबाकर इकट्ठा करेंगे। और फिर वह वक्त आएगा कि आपका संकल्प तोड़कर वासना पुनः बह उठेगी।
अभी वासना का हम पर हमला होता है, वी आर दि विक्टिम्स। अगर इसे ठीक से समझें, तो हम वासना के मालिक नहीं हैं, शिकार हैं। वासना हमें पकड़ लेती है भूत-प्रेत की भांति; और हमसे कुछ करा डालती है, जो कि शायद हमने अपने होश में कभी न किया होता। और जब हम होश में आते हैं, तो पछताते हैं, दुखी और पीड़ित होते हैं कि हमने ऐसा सोचा, ऐसा किया! लेकिन फिर वही होता है।
हम वासना के हाथ में धागे बंधी हुई गुड्डियों की तरह हैं, जो नाचते हैं। प्रकृति हम से काम लेती है। हम प्रकृति के गुलाम हैं। प्रकृति आज्ञा देती है, और हम काम में लग जाते हैं।
धर्म से भरे हुए व्यक्ति को प्रकृति आज्ञा देना बंद कर देती है। असल में जो व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है, प्रकृति की आज्ञा-सीमा के बाहर हो जाता है। प्रकृति उसे कोई भी आज्ञा नहीं दे सकती। और एक नई घटना घटती है कि धर्म को उपलब्ध व्यक्ति प्रकृति को आज्ञा देने लगता है। एक आमूल रूपांतरण होता है।
जब तक हम अधर्म में जीते हैं, तब तक प्रकृति हमें आज्ञा देती है; हम गुलामों की तरह होते हैं। हम चलाए जाते हैं, चलते नहीं। हम खींचे जाते हैं, चलते नहीं। हम धकाए जाते हैं, हम चलते नहीं। हमारी जिंदगी हमारी वृत्तियों का जबर्दस्ती दबाव है। न तो आपने कभी क्रोध किया है; क्रोध करवाया गया है। न आपने कभी कामवासना की है; कामवासना करवाई गई है। आप सिर्फ एक विक्टिम हैं, एक शिकार हैं। चारों तरफ से आपको धक्के दिए जा रहे हैं।
जैसे हवा में पत्ता कंपता है। बाएं हवा बहती है, तो बाएं; और दाएं बहती है, तो दाएं। वह पत्ता भी शायद मन में सोचता होगा कि अब बाएं बहुत थक गया, अब जरा दाएं बहूं। जब हवा दाएं चलने लगती है, तब वह सोचता होगा, अब दाएं चलूं। वैसे ही आप सोचते हैं कि मैं क्रोध कर रहा हूं; कि मैं वासना से भर रहा हूं।
नहीं; आप सिर्फ भरे जाते हैं। आप बिलकुल हेल्पलेस विक्टिम, असहाय शिकार हैं।
धर्म से भरा हुआ व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठता है, वह प्रकृति को आज्ञा देना शुरू करता है। वैसे व्यक्ति के जीवन में कामवासना वासना नहीं रह जाती। हां, वैसे व्यक्ति के जीवन में यदि काम की कोई घटना भी घटे–जैसे कि कुछ घटनाएं घटी हैं–तो उनके कारण बहुत ही दूसरे होते हैं।
जैसे जीसस के बाबत कहा जाता है कि वह क्वांरी मरियम से पैदा हुए। यह उदाहरण मैं दे रहा हूं, ताकि आपकी समझ में आ सके कृष्ण की बात। जीसस के बाबत कहा जाता है, वे क्वांरी मरियम से, वर्जिन मैरी से पैदा हुए। अब क्वांरी लड़की से कोई कैसे पैदा होगा?
लेकिन हो सकता है। अगर कृष्ण के सूत्र को समझें, तो हो सकता है। मैरी, वह जीसस की मां, किसी कामवासना से भरकर अगर संभोग में न उतरी हो, वरन जीसस की आत्मा को जन्म देने के लिए ही अपने शरीर की प्रकृति को उसने आज्ञा दी हो, तो वह क्वांरी है।
और आपसे मैं कहूं कि आप जब किसी बच्चे को जन्म देते हैं, तब भी आपको पता नहीं होता कि उस बच्चे की आत्मा आपके चारों तरफ मंडरा रही है और आपको प्रेरित कर रही है कि आप उसे जन्म दें। लेकिन आप बेहोश हैं। उसके लिए प्रकृति आपको धक्के दिलाती है और बच्चे का जन्म करवाती है।
लेकिन कामवासना जिस दिन धर्म से रूपांतरित होती है, उस दिन आप सचेत रूप से एक आत्मा से बात कर पाते हैं, जो आपके द्वारा जन्म लेना चाहती है। और अगर आप जन्म देना चाहते हैं, तो आप अपने शरीर को आज्ञा देते हैं कि वह वासना में उतरे, वह काम-कृत्य में उतरे। लेकिन यह आज्ञा होती है। और इसलिए इसमें बुनियादी फर्क है।
जब आप कामवासना में उतरते हैं, तो आप बेहोश होते हैं। और जब ऐसा व्यक्ति कभी कामवासना में उतरता है, तो बिलकुल होश में होता है। वह अपने शरीर का उपयोग एक उपकरण, एक यंत्र की भांति कर रहा होता है। मालिक होता है। शरीर उसका उपयोग नहीं कर रहा होता है।
तो कृष्ण कहते हैं, मैं कामवासना भी हूं, लेकिन उनकी, जो धर्म से भरे हैं।
जीवन ने बहुत-से सत्य खोज लिए थे, जो धीरे-धीरे बार-बार खो जाते हैं, उनमें से एक सत्य यह भी था। इस संदर्भ में एक बात आपको कहना चाहूंगा।
आज सारी पृथ्वी पर संतति निरोध का आंदोलन है। सब जगह, किसी भी तरह आने वाले बच्चों को रोकना है। लेकिन एक ही उपाय मालूम पड़ता है और वह यह कि हमारे शरीर में कुछ फर्क किया जाए। और कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता। एक ही उपाय मालूम पड़ता है कि हमारे शरीर की ग्रंथियां काट डाली जाएं, या शरीर में ऐसे रासायनिक द्रव्य डाले जाएं, या ऐसा इंतजाम किया जाए, कि आने वाली आत्मा जो हमारे भीतर प्रवेश करती है, वह अवसर न पा सके और प्रवेश न कर पाए।
यह बड़ी असहाय स्थिति है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता क्या? लेकिन आदमी को देखकर नहीं कहा जा सकता है कि हो सकता है। दूसरी बात भी हो सकती है।
कृष्ण के इस सूत्र से वह बात दूसरी निकलती है। हम व्यक्तियों को इतना सचेतन बना सकते हैं–शरीर को बदलकर नहीं, उनकी चेतना को बदलकर–कि जब कोई आत्मा उनसे निवेदन करे कि वे जन्म देने वाले बनें, तो वे इनकार कर सकें; या जरूरत हो, तो जन्म दे सकें।
इस संबंध में मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि हजारों वर्ष तक भारत ने इसका प्रयोग किया है। इस बात के सैकड़ों प्रमाण हैं। इस बात का प्रयोग किया गया है। इस प्रयोग की पूरी की पूरी साइंस विकसित की गई थी।
जैसे कि आपने अगर महावीर या बुद्ध का जीवन पढ़ा हो, तो इस मुल्क ने एक पूरा का पूरा ड्रीम एनालिसिस, एक स्वप्न-विज्ञान निर्मित किया था। फ्रायड ने तो अभी-अभी स्वप्न के लक्षणों को समझना शुरू किया है। वह भी समझ अभी बहुत बालपन की है। वह अभी बहुत गहरी नहीं है।
लेकिन जैन परंपरा कहती है कि जब तीर्थंकर किसी मां के गर्भ में प्रवेश करता है, तो इस-इस तरह के स्वप्न इस-इस समय पर उस मां को आने शुरू होते हैं। वह इस बात की खबर है कि तीर्थंकर की कोटि की आत्मा उस मां के गर्भ में प्रवेश करना चाहती है। वे स्वप्न सूचनाएं हैं। उन स्वप्नों से खबर मिलती है कि कोई एक विराट आत्मा मां के भीतर प्रवेश करना चाहती है। वे स्वप्न जो हैं, सिंबालिक मैसेजेस हैं।
और यह बड़े मजे की बात है कि जैनों के चौबीस तीर्थंकर बहुत लंबे फासले पर हुए; अंदाजन कम से कम दस हजार साल का फासला–कम से कम; इससे ज्यादा हो सकता है–लेकिन उनकी माताओं को आने वाले स्वप्नों का क्रम एक है। वे स्वप्न सूचक हैं। वे इस बात की खबर दे रहे हैं कि इनकार मत कर देना। क्योंकि जो व्यक्ति पैदा होने वाला है, वह तुम्हें सिर्फ मार्ग बना रहा है, लेकिन इस जगत के लिए बहुत काम का है, उसको इनकार मत कर देना। वह कोई साधारण आत्मा नहीं, जो तुमसे आ रही है।
और बुद्ध के मामले में तो यह भी जाहिर था कि बुद्ध जिससे भी जन्म लेंगे, वह मां जन्म देकर तत्काल मर जाएगी; जी न सकेगी। क्योंकि बुद्ध जैसे व्यक्तित्व को जन्म देना!
हम जानते हैं, साधारण बच्चे को जन्म देने में कितनी प्रसव-पीड़ा होती है। साधारण बच्चे को जन्म देने में कितनी प्रसव-पीड़ा होती है। लेकिन शरीर को ही पीड़ा होती है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को जन्म देने में आत्मा तक प्रसव-पीड़ा का प्रवेश होता है। वह कोई छोटी घटना नहीं है। एक बहुत महान घटना, एक विराट घटना घट रही है शरीर के भीतर।
तो यह जाहिर थी बात कि बुद्ध की मां जन्म देने के बाद बचेगी नहीं। फिर भी बुद्ध की मां राजी थी। क्योंकि बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है, यह सौभाग्य छोड़ने जैसा नहीं है। और कहा जाता है कि देवताओं ने बुद्ध की मां को न मालूम कितनी-कितनी तरह से राजी किया। और कहा कि इनकार मत कर देना। क्योंकि जो व्यक्ति आ रहा है, वह करोड़ों के जीवन को प्रकाशमान कर देगा। उसके लिए इतना कष्ट झेलने की तैयारी रखना।
बुद्ध ने घोषणा की है कि दो हजार साल बाद मैं पुनः एक नए रूप में, मैत्रेय के रूप में पृथ्वी पर उतरूंगा। दो हजार साल पूरे हो गए, लेकिन मैत्रेय को ठीक गर्भ नहीं मिल पा रहा है। इसलिए एक अड़चन खड़ी हो गई है। इसलिए जो लोग जीवन की गहराइयों से संबंधित हैं, उनकी इस वक्त सबसे बड़ी बेचैनी यही है कि कोई मां मैत्रेय को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाए। लेकिन कोई मां पृथ्वी पर दिखाई नहीं पड़ती है।
बुद्ध का वचन खाली न जाए, इसलिए और तरह के प्रयोग भी किए गए। वे भी असफल हो गए। कोई गर्भ देने वाली मां नहीं मिलती है, तो कोशिश यह की गई कि किसी व्यक्ति के शरीर में, जीवित व्यक्ति के शरीर में ही बुद्ध की आत्मा को प्रवेश करा दिया जाए। और एक ही शरीर से दोनों आत्माएं काम कर लें। यह आत्मा जो मौजूद है, सिकुड़ जाए और उस आत्मा को जगह दे दे। वे प्रयोग भी सफल नहीं हो सके। कृष्णमूर्ति के साथ भी वही प्रयोग किया गया था; वह सफल नहीं हो सका।
एक और गहरे तल पर गर्भ का विज्ञान सोचा, समझा और पहचाना गया था। कृष्ण उसी की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जिस दिन धर्म से भरा हुआ होता है चित्त, उस दिन काम की वासना भी मैं ही हूं।