शनिवार, 4 अगस्त 2018

गीता दर्शन - समत्वबुद्धि रूप योग

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ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 20, भाग 2
*भगवानुवाच :*
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।। 44।।
कृष्ण बोले : *_ और वह विषयों के वश में हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही, निःसंदेह भगवत की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समत्वबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल का उल्लंघन कर जाता है।_*
*ओशो :*  दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। वे कहते हैं कि पिछले जन्मों में जिसने थोड़ी-सी भी यात्रा प्रभु की दिशा में की हो, वह उसकी संपदा बन गई है। अगले जन्मों में विषय और वासना में लिप्त हुआ भी प्रभु की कृपा का पात्र बन जाता है।

 अगले जन्म में विषय-वासना में लिप्त हुआ भी–वैसा व्यक्ति जिसके पिछले जन्मों की यात्रा में योग का थोड़ा-सा भी संचय है, जिसने थोड़ा भी धर्म का संचय किया, जिसका थोड़ा भी पुण्य अर्जन है–वह विषय-वासनाओं में डूबा हुआ भी, प्रभु की कृपा का पात्र बना रहता है। वह उतना-सा जो उसका किया हुआ है, वह दरवाजा खुला रहता है। बाकी उसके सब दरवाजे बंद होते हैं। सब तरफ अंधकार होता है, लेकिन एक छोटे-से छिद्र से प्रभु का प्रकाश उसके भीतर उतरता है।

 और ध्यान रहे, गहन अंधकार में अगर छप्पर के छेद से भी रोशनी की एक किरण आती हो, तो भी भरोसा रहता है कि सूरज बाहर है और मैं बाहर जा सकता हूं! अंधकार आत्यंतिक नहीं है, अल्टिमेट नहीं है। अंधकार के विपरीत भी कुछ है।

 एक छोटी-सी किरण उतरती हो छिद्र से घने अंधकार में, तो वह छोटी-सी किरण भी उस घने अंधकार से महान हो जाती है। वह घना अंधकार उस छोटी-सी किरण को भी मिटा नहीं पाता; वह छोटी-सी किरण अंधकार को चीरकर गुजर जाती है।

 कितना ही विषय-वासनाओं में डूबा हो वैसा आदमी अगले जन्मों में, लेकिन अगर छोटे-से छिद्र से भी, जो उसने निर्मित किया है, प्रभु की कृपा उसको उपलब्ध होती रहे, तो उसके रूपांतरण की संभावना सदा ही बनी रहती है। वह सदा ही प्रभु-कृपा को पाता रहता है। जगह-जगह, स्थान-स्थान, स्थितियों-स्थितियों से प्रभु की कृपा उस पर बरसती रहती है। न मालूम कितने रूपों में, न मालूम कितने आकारों में, न मालूम कितने अनजान मार्गों और द्वारों से, और न मालूम कितनी अनजान यात्राएं प्रभु की कृपा से उसकी तरफ होती रहती हैं। बाहर वह कितना ही उलझा रहे, भीतर कोई कोना प्रभु का मंदिर बना रहता है। और वह बहुत बड़ा आश्वासन है।

 कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वह छोटा-सा छिद्र भी अगर निर्मित हो जाए, तो तेरे लिए बड़ा सहारा होगा।

 और एक दूसरी बात, और भी क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी बात कहते हैं। कहते हैं, योग का जिज्ञासु भी, जस्ट एन इंक्वायरर; योग का जिज्ञासु भी–मुमुक्षु भी नहीं, साधक भी नहीं, सिद्ध भी नहीं–मात्र जिज्ञासु; जिसने सिर्फ योग के प्रति जिज्ञासा भी की हो, वह भी वेद में बताए गए सकाम कर्मों का उल्लंघन कर जाता है, उनसे पार निकल जाता है।

 वेद में कहा है कि यज्ञ करो, तो ये फल होंगे। ऐसा दान करो, तो ऐसा स्वर्ग होगा। इस देवता को ऐसा नैवेद्य चढ़ाओ, तो स्वर्ग में यह फल मिलेगा। ऐसा करो, ऐसा करो, तो ऐसा-ऐसा फल होता है सुख की तरफ। वेद में बहुत-सी विधियां बताई हैं, जो मनुष्य को सुख की दिशा में ले जा सकती हैं। कारण है बताने का।

 वेद अर्जुन जैसे स्पष्ट जिज्ञासु के लिए दिए गए वचन नहीं हैं। वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। समस्त लोगों के लिए, जितने तरह के लोग पृथ्वी पर हो सकते हैं, सब के लिए सूत्र वेद में उपलब्ध हैं। गीता तो स्पेसिफिक टीचिंग है, एक विशेष शिक्षा है। एक विशेष व्यक्ति द्वारा दी गई; विशेष व्यक्ति को दी गई। वेद किसी एक व्यक्ति के द्वारा दी गई शिक्षा नहीं है; अनेक व्यक्तियों के द्वारा दी गई शिक्षा है। एक व्यक्ति को दी गई शिक्षा नहीं, अनेक व्यक्तियों को दी गई शिक्षा है।

 और वेद विश्वकोश है। क्षुद्रतम व्यक्ति से श्रेष्ठतम व्यक्ति के लिए वेद में वचन हैं। क्षुद्रतम व्यक्ति से! उस आदमी के लिए भी वेद में वचन हैं, जो कहता है कि हे प्रभु, हे देव, हे इंद्र! बगल का आदमी मेरा दुश्मन हो गया है; तू कृपा कर और इसकी गाय के दूध को नदारद कर दे। उसके लिए भी प्रार्थना है! कुछ ऐसा कर कि इस पड़ोसी की गाय दूध देना बंद कर दे।

 सोच भी न पाएंगे। दुनिया का कोई धर्मग्रंथ इतनी हिम्मत न कर पाएगा कि इसको अपने में सम्मिलित कर ले। लेकिन वेद उतने ही इनक्लूसिव हैं, जितना इनक्लूसिव परमात्मा है।

 जब परमात्मा इस आदमी को अपने में जगह दिए हुए है, तो वेद कहते हैं, हम भी जगह देंगे। जब परमात्मा इनकार नहीं करता कि इस आदमी को हटाओ, नष्ट करो; यह आदमी क्या बातें कर रहा है! यह कह रहा है कि हे इंद्र, मैं तेरी पूजा करता हूं, तेरी प्रार्थना, तेरी अर्चना, तेरे नैवेद्य चढ़ाता हूं, तेरे लिए यज्ञ करता हूं, तो कुछ ऐसा कर कि पड़ोसी के खेत में इस बार फसल न आए। दुश्मन के खेत जल जाएं, हमारे ही खेत में फसलें पैदा हों। दुश्मनों का नाश कर दे। जैसे बिजली गिरे किसी पर और वज्राघात होकर वह नष्ट हो जाए, ऐसा उस दुश्मन को नष्ट कर दे।

 धर्मग्रंथ, और ऐसी बात को अपने भीतर जगह देता है! शोभन नहीं मालूम पड़ता। कृष्ण को भी शोभन नहीं मालूम पड़ा होगा। इसलिए कृष्ण ने कहा है कि वेदों में जिन सकाम कर्मों की–सकाम कर्म का अर्थ है, किसी वासना से किया गया पूजा-पाठ, हवन, विधि; किसी वासना से, किसी कामना से, कुछ पाने के लिए किया गया–जो भी वेदों में दी गई व्यवस्था है, जो कर्मकांड है, उसको कर-करके भी आदमी जहां पहुंचता है, योग की जिज्ञासा मात्र करने वाला, उसके पार निकल जाता है। सिर्फ जिज्ञासा मात्र करने वाला! इसका ऐसा अर्थ हुआ, अकाम भाव से जिज्ञासा मात्र करने वाला, सकाम भाव से साधना करने वाले से आगे निकल जाता है।

 अकाम का इतना अदभुत रहस्य, निष्काम भाव की इतनी गहराई और निष्काम भाव का इतना शक्तिशाली होना, उसे बताने के लिए कृष्ण ने यह कहा है।

 कृष्ण भी वेद से चिंतित हुए, क्योंकि वेद इस तरह की बातें बता देता है। वेद से बुद्ध भी चिंतित हुए। सच तो यह है कि हिंदुस्तान में वेद की व्यवस्थाओं के कारण ही जैन और बौद्ध धर्मों का भेद पैदा हुआ, अन्यथा शायद कभी न पैदा होता। क्योंकि तीर्थंकरों को, जैनों के तीर्थंकरों को भी लगा कि ये वेद किस तरह की बातें करते हैं!

 महावीर कहते हैं कि दूसरे के लिए भी वैसा ही सोचो, जैसा अपने लिए सोचते हो; और वेद ऐसी प्रार्थना को भी जगह देता है कि दुश्मन को नष्ट कर दो! बुद्ध कहते हैं, करुणा करो उस पर भी, जो तुम्हारा हत्यारा हो। और वेद कहते हैं, पड़ोसी के जीवन को नष्ट कर दे हे देव! और इसको जगह देते हैं। बुद्ध या कृष्ण या महावीर, सभी वेद की इन व्यवस्थाओं से चिंतित हुए हैं।

 लेकिन मैं आपसे कहूं, वेद का अपना ही रहस्य है। और वह रहस्य यह है कि वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। विश्वकोश का अर्थ होता है, जो भी धर्म की दिशा में संभव है, वह सभी संगृहीत है। माना कि यह आदमी दुश्मन को नष्ट करने के लिए प्रार्थना कर रहा है, लेकिन प्रार्थना कर रहा है। और प्रार्थना संकलित होनी चाहिए। यह भी आदमी है; माना बुरा है, पर है। तथ्य है, तथ्य संगृहीत होना चाहिए। और जब परमात्मा इसे स्वीकार करता है, सहता है, इसके जीवन का अंत नहीं करता; श्वास चलाता है, जीवन देता है, प्रतीक्षा करता है इसके बदलने की, तो वेद कहते हैं कि हम भी इतनी जल्दी क्यों करें! हम भी इसे स्वीकार कर लें।

 वेद जैसी किताब नहीं है पृथ्वी पर, इतनी इनक्लूसिव। सब किताबें चोजेन हैं। दुनिया की सारी किताबें चुनी हुई हैं। उनमें कुछ छोड़ा गया है, कुछ चुना गया है। बुरे को हटाया गया है, अच्छे को रखा गया है। धर्मग्रंथ का मतलब ही यही होता है। धर्मग्रंथ का मतलब ही होता है कि धर्म को चुनो, अधर्म को हटाओ। वेद सिर्फ धर्मग्रंथ नहीं है; मात्र धर्मग्रंथ नहीं है। वेद पूरे मनुष्य की समस्त क्षमताओं का संग्रह है। समस्त क्षमताएं!

 जान्सन ने, डाक्टर जान्सन ने अंग्रेजी का एक विश्वकोश निर्मित किया। विश्वकोश जब कोई निर्मित करता है, तो उसे गंदी गालियां भी उसमें लिखनी पड़ती हैं। लिखनी चाहिए, क्योंकि वे भी शब्द तो हैं ही और लोग उनका उपयोग तो करते ही हैं। उसमें गंदी, अभद्र, मां-बहन की गालियां, सब इकट्ठी की थीं।

 बड़ा कोश था। लाखों शब्द थे। उसमें गालियां तो दस-पच्चीस ही थीं, क्योंकि ज्यादा गालियों की जरूरत नहीं होती, एक ही गाली को जिंदगीभर रिपीट करने से काम चल जाता है। गालियों में कोई ज्यादा इनवेंशन भी नहीं होते। गालियां करीब-करीब प्राचीन, सनातन चलती हैं। गाली, मैं नहीं देखता, कोई नई गाली ईजाद होती हो। कभी-कभी कोई छोटी-मोटी ईजाद होती है; वह टिकती नहीं। पुरानी गाली टिकती है, स्थिर रहती है।

 एक महिला भद्रवर्गीय पहुंच गई जान्सन के पास। खोला शब्दकोश उसका और कहा कि आप जैसा भला आदमी और इस तरह की गालियां लिखता है! अंडरलाइन करके लाई थी! जान्सन ने कहा, इतने बड़े शब्दकोश में तुझे इतनी गालियां ही देखने को मिलीं! तू खोज कैसे पाई? मैं तो सोचता था, कोई खोज नहीं पाएगा। तू खोज कैसे पाई? जान्सन ने कहा, मुझे गाली और पूजा और प्रार्थना से प्रयोजन नहीं है। आदमी जो-जो शब्दों का उपयोग करता है, वे संगृहीत किए हैं।

 वेद आल इनक्लूसिव है। इसलिए वेद में वह क्षुद्रतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास न मालूम कौन-सी क्षुद्र आकांक्षा लेकर गया है। वह श्रेष्ठतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास कोई आकांक्षा लेकर नहीं गया है। वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास जाने की हर कोशिश करता है और नहीं पहुंच पाता। और वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा की तरफ जाता नहीं, परमात्मा खुद उसके पास आता है। सब मिल जाएंगे।

 इसलिए वेद की निंदा भी करनी बहुत आसान है। कहीं भी पन्ना खोलिए वेद का, आपको उपद्रव की चीजें मिल जाएंगी। कहीं भी। क्यों? क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत आदमी तो उपद्रव है। और वेद इसलिए बहुत रिप्रेजेंटेटिव है, बहुत प्रतिनिधि है। ऐसी प्रतिनिधि कोई किताब पृथ्वी पर नहीं है। सब किताबें क्लास रिप्रेजेंट करती हैं, किसी वर्ग का। किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं सब किताबें। वेद प्रतिनिधि है मनुष्य का, किसी वर्ग का नहीं, सबका। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके अनुकूल वक्तव्य वेद में न मिल जाए।

 इसीलिए उसे वेद नाम दिया गया है। वेद का अर्थ है, नालेज। वेद का अर्थ और कुछ नहीं होता। वेद शब्द का अर्थ है, ज्ञान, जस्ट नालेज। आदमी को जो-जो ज्ञान है, वह सब संगृहीत है। चुनाव नहीं है। कौन आदमी को रखें, किसको छोड़ दें, वह नहीं है।

 कृष्ण, बुद्ध, महावीर सबको इसमें अड़चन रही है। अड़चन के भी अपने-अपने रूप हैं। कृष्ण ने वेद को बिलकुल इनकार नहीं किया, लेकिन तरकीब से वेद के पार जाने वाली बात कही। कृष्ण ने कहा कि ठीक है वेद भी; सकाम आदमी के लिए है। लेकिन निष्काम की जिज्ञासा करने वाला भी, इन हवन और यज्ञ करने वाले लोगों से पार चला जाता है। महावीर और बुद्ध ने तो बिलकुल इनकार किया, और उन्होंने कहा कि वेद की बात ही मत चलाना। वेद की बात चलाई, कि नर्क में पड़ोगे। इसलिए वेद के विरोध में अवैदिक धर्म भारत में पैदा हुए, बुद्ध और महावीर के।

 पर, मेरी समझ यह है कि वेद को ठीक से कभी भी नहीं समझा गया, क्योंकि इतनी आल इनक्लूसिव किताब को ठीक से समझा जाना कठिन है। क्योंकि आपके टाइप के विपरीत बातें भी उसमें होंगी, क्योंकि आपका विपरीत टाइप भी दुनिया में है। इसलिए वेद को पूरी तरह प्रेम करने वाला आदमी बहुत मुश्किल है। वह वही आदमी हो सकता है, जो परमात्मा जैसा आल इनक्लूसिव हो, नहीं तो बहुत मुश्किल है। उसको कोई न कोई खटकने वाली बात मिल जाएगी कि यह बात गड़बड़ है। वह आपके पक्ष की नहीं होगी, तो गड़बड़ हो जाएगी।

 वेद में कुरान भी मिल जाएगा। वेद में बाइबिल भी मिल जाएगी। वेद में धम्मपद भी मिल जाएगा। वेद में महावीर के वचन भी मिल जाएंगे। वेद इनसाइक्लोपीडिया है। वेद को प्रयोजन नहीं है।

 इसलिए महावीर को कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर के विपरीत टाइप का भी सब संग्रह वहां है। और वह विपरीत टाइप को भी कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर वाला संग्रह भी वहां है। और अड़चन सभी को होगी।

 इसलिए वेद के साथ कोई भी बिना अड़चन में नहीं रह पाता। और अड़चन मिटाने के जो उपाय हुए हैं, वे बड़े खतरनाक हैं। जैसे दयानंद ने एक उपाय किया अड़चन मिटाने का। वह अड़चन मिटाने का उपाय यह है कि वेद के सब शब्दों के अर्थ ही बदल डालो। और इस तरह के अर्थ निकालो उसमें से कि वेद विश्वकोश न रह जाए, धर्मशास्त्र हो जाए; एक संगति आ जाए, बस।

 यह ज्यादती है लेकिन। वेद में संगति नहीं लाई जा सकती। वेद असंगत है। वेद जानकर असंगत है, क्योंकि वेद सबको स्वीकार करता है, असंगत होगा ही।

 शब्दकोश संगत नहीं हो सकता। विश्वकोश, इनसाइक्लोपीडिया संगत नहीं हो सकता। इनसाइक्लोपीडिया को अपने से विरोधी वक्तव्यों को भी जगह देनी ही पड़ेगी।

 लेकिन कभी ऐसा आदमी जरूर पैदा होगा एक दिन पृथ्वी पर, जो समस्त को इतनी सहनशीलता से समझ सकेगा, सहनशीलता से, उस दिन वेद का पुनर्आविर्भाव हो सकता है। उस दिन वेद में दिखाई पड़ेगा, सब है। कंकड़-पत्थर से लेकर हीरे-जवाहरातों तक, बुझे हुए दीयों से लेकर जलते हुए महासूर्यों तक, सब है।

 तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं–वह उनका अर्थ है कहने का और कारण है–वे कहते हैं कि वेदों की समस्त साधना भी तू कर डाल, सब यज्ञ कर ले, हवन कर ले, फिर भी इतना न पाएगा, जितना सिर्फ योग की जिज्ञासा से पा सकता है। और योग को साधे, तब तो बात ही अलग है। तब तो प्रश्न ही नहीं उठता। अर्जुन को भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण की चेष्टा सतत है।
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गीता दर्शन - शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है

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ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 20, भाग 3

*भगवानुवाच :*
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।। 45।।
कृष्ण बोले : *_ अनेक जन्मों से अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न से अभ्यास करने वाला योगी, संपूर्ण पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर उस साधन के प्रभाव से परम गति को प्राप्त होता है अर्थात परमात्मा को प्राप्त होता है।_*

*ओशो :*  इस सूत्र में दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। जैसे-जैसे अर्जुन, उन्हें प्रतीत होता है कि समझ पाएगा, समझ पाएगा, वैसे-वैसे वे कुछ और जोड़ देते हैं। दो बातें कहते हैं। वे कहते हैं, शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है।

 शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है। क्या शुद्ध होना काफी नहीं है? कठिन सवाल है। जटिल बात है। क्या शुद्ध होना काफी नहीं है? और साधन की भी जरूरत पड़ेगी? इतना ही उचित न होता कहना कि शुद्ध हुआ जिसका अंतःकरण, वह परम गति को उपलब्ध होता है?
 लेकिन कृष्ण कहते हैं, अनंत जन्मों में भी शुद्ध हुआ अंतःकरण वाला व्यक्ति साधन की सहायता से परम गति को उपलब्ध होता है। मेथड, विधि की सहायता से। साधारणतः हमें लगेगा, जो शुद्ध हो गया पूरा, अब और क्या जरूरत रही साधन की? क्या परमात्मा उसे बिना किसी साधन के न मिल जाएगा?
 एक छोटी-सी बात समझ लें, तो खयाल में आ जाएगी। जो शुद्ध हो जाए सब भांति और साधन का प्रयोग न किया हो, तो एक ही खतरा है, जो अंतिम बाधा बन जाता है। पायस ईगोइज्म, एक पवित्र अहंकार भीतर निर्मित होता है।
 अपवित्र अहंकार तो होते ही हैं। एक आदमी कहता है कि मुझसे ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। कि मैं छाती में छुरा भोंक दूं, तो हाथ नहीं धोता और खाना खा लेता हूं। अब इसके भी दावे करने वाले लोग हैं! यह असात्विक अहंकार की घोषणा है।
 ध्यान रखना कि आमतौर से हम समझते हैं कि सभी अहंकार असात्विक होते हैं, तो गलत समझते हैं। सात्विक अहंकार भी होते हैं। और सात्विक अहंकार सटल, सूक्ष्म हो जाता है।
 एक आदमी कहता है, मुझसे दुष्ट कोई भी नहीं; एक आदमी कहता है, मैं तो आपके चरणों की धूल हूं। अब जो आदमी कहता है, मैं आपके चरणों की धूल हूं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं। इसका भी अहंकार है; बहुत सूक्ष्म। इसका भी दावा है। बहुत दावा शून्य मालूम पड़ता है, लेकिन दावा है। कोई दावा दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि यह भी कोई दावा हुआ कि मैं आपके चरणों की धूल हूं!
 लेकिन उस आदमी की आंखों में झांकें। अगर आप उससे कहें कि तुम तो कुछ भी नहीं हो, तुमसे भी ज्यादा चरणों की धूल मैंने देखी है एक आदमी में। एक आदमी मैंने देखा, तुमसे भी ज्यादा। तुम कुछ भी नहीं हो उसके सामने। तो आप देखना कि उसके भीतर अहंकार तड़पकर रह जाएगा; बिजली कौंध जाएगी। उसकी आंखों में झलक आ जाएगी। वही झलक, जो आदमी कहता है कि मुझसे ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। मैं छाती में छुरा भोंक देता हूं, और बिना हाथ धोए पानी पीता हूं। वही झलक!
 अहंकार बहुत चालाक है, दि मोस्ट कनिंग फैक्टर। बहुत चालाक तत्व है हमारे भीतर। वह हर चीज से अपने को जोड़ लेता है, हर चीज से! वह कहता है, धन है तुम्हारे पास, तो अकड़कर खड़े हो जाओ, और कहो कि जानते हो, मैं कौन हूं! मेरे पास धन है। अब तुमने अगर सोचा कि धन की वजह से अहंकार है। छोड़ दो धन। तो वह अहंकार कहेगा, तेरे से बड़ा त्यागी कोई भी नहीं। घोषणा कर दे कि मैं त्यागी हूं, महान!
 आपको पता नहीं कि वही अहंकार, जो धन के पीछे छिपा था, अब त्याग के पीछे छिप गया है; त्याग को ओढ़ लिया है। और ध्यान रहे, धन वाला अहंकार तो बहुत स्थूल होता है, सबको दिखाई पड़ता है। त्याग वाला अहंकार सूक्ष्म हो जाता है और दिखाई नहीं पड़ता।
 इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, सब भांति शुद्ध हुआ व्यक्ति भी, साधन की सहायता से प्रभु को उपलब्ध होता है।
 अब ये साधन की इसलिए जरूरत पड़ी। शुद्धि हो जाए, सत्व आ जाए, सब अंतःकरण बिलकुल पवित्र मालूम होने लगे, लेकिन यह प्रतीति एक चीज को बचा रखेगी, वह है मैं। उस मैं को बिना साधन के काटना असंभव है। उस मैं को साधन से काटना पड़ेगा।
 और योग की जो परम विधियां हैं, वे इस मैं को काटने की विधियां हैं, जिनसे यह मैं कटेगा। बहुत तरह की विधियां योग उपयोग करता है, जिनसे कि यह मैं काटा जाए। अलग-अलग तरह के व्यक्ति के लिए अलग-अलग विधि उपयोगी होती है, जिससे यह मैं कट जाए। एक-दो घटनाएं मैं आपसे कहूं, तो खयाल में आ जाए।
 सूफी फकीर हुआ बायजीद। बायजीद के पास, जिस राजधानी में वह ठहरा था, उस राजधानी का जो सबसे बड़ा धनपति था, नगर सेठ था, वह आया। उसने आकर लाखों रुपए बायजीद के चरणों में डाल दिए और कहा बायजीद, मैं सब त्याग करना चाहता हूं। स्वीकार करो! बायजीद ने कहा कि अगर तू त्याग को त्याग करना चाहे, तो मैं स्वीकार करता हूं। त्याग को स्वीकार नहीं करूंगा। त्याग को भी त्याग करना चाहे, तो स्वीकार करता हूं। उस आदमी ने कहा, मजे की बात कर रहे हैं आप। धन तो त्यागा जा सकता है; त्याग को कैसे त्यागेंगे! त्याग क्या कोई चीज है?
 बायजीद ने कहा, साधन का उपयोग करेंगे; त्याग को भी त्याग करवा देंगे। उस आदमी ने कहा, करो साधन का उपयोग, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता। यह त्याग तो है ही नहीं! समझिए कि एक कमरे में मैं मौजूद हूं, तो मुझे बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन अगर मैं मौजूद नहीं हूं, तो मेरी गैर-मौजूदगी को कैसे बाहर निकाला जा सकेगा!
 बायजीद ने कहा, प्यारे, जिसे तू गैर-मौजूदगी कह रहा है, वह गैर-मौजूदगी नहीं है। वह सिर्फ जो प्रकट अहंकार था, उसका अप्रकट हो जाना है। तू टेबल-कुर्सी के नीचे छिप गया है; गैर-मौजूद नहीं है। हम निकालेंगे। साधन का उपयोग करेंगे।
 उसने कहा, अच्छा भाई। मैं तो सोचता था कि सब धन छोड़कर–अंतःकरण इस धन की वजह से अशुद्ध होता है–अशुद्धि के बाहर हो जाऊंगा। तुम कहते हो कि और! और क्या चाहते हो तुम?
 उस फकीर ने कहा कि तू कल से एक काम कर। रोज सुबह सड़क पर बुहारी लगा, कचरे को ढो। फिर जब जरूरत होगी, आगे साधन का उपयोग करेंगे।
 बड़ा कष्ट हुआ उस आदमी को। धन छोड़ देने में कष्ट न हुआ था। यह सड़क पर बुहारी लगाने में बहुत कष्ट हुआ। कई दफा मन में खयाल आता कि क्या सड़क पर बुहारी लगाना, यह कोई योग है? यह कोई साधन है? कई दफा आता बायजीद के पास, पूछने का मन होता। बायजीद कहता कि रुक, रुक। अभी पूछ मत। थोड़ा और बुहारी लगा।
 बुहारी लगाते-लगाते एक महीना बीत गया, तब बायजीद एक दिन सड़क के किनारे से निकल रहा था। वह धनपति इतने आनंद से बुहारी लगा रहा था कि जैसे प्रभु का गीत गा रहा हो। उसने उसके कंधे पर हाथ रखा। उसने लौटकर भी नहीं देखा बायजीद को। वह अपनी बुहारी लगाता रहा। बायजीद ने कहा, मेरे भाई, सुनो भी! उसने कहा, व्यर्थ मेरे भजन में बाधा मत डालो। बायजीद ने कहा, चल, अब बुहारी लगाने की कोई जरूरत न रही। बुहारी लगाना भजन बन गया। एक साधन का उपयोग हुआ।
 योग हजार विधियों का प्रयोग करता है। योग ने जब पहली दफा संन्यासियों को कहा कि तुम भिक्षा मांगो, तो उसका कारण सिर्फ साधन था। भिखारी बनाने के लिए नहीं था। बुद्ध खुद सड़क पर भिक्षा मांगने जाते हैं। बुद्ध को भिक्षा मांगने की क्या जरूरत थी? और जब बुद्ध के पास बड़े से बड़ा सम्राट भी दीक्षित होता है, तो वे कहते हैं, भिक्षा मांग। कई बार लोग कहते भी थे कि भिक्षा की क्या जरूरत है, हमारे घर से इंतजाम हो जाएगा! बुद्ध कहते, जिस घर को छोड़ दिया, उससे इंतजाम लेगा, तो साधन न हो पाएगा। उससे इंतजाम मत ले। तू तो सड़क पर भीख मांग। वह आदमी कहता कि कई दफा लोग ऐसा हाथ का इशारा कर देते हैं, आगे जाओ, तो बड़ा दुख होता है। बुद्ध कहते, जिस दिन दुख न हो, उस दिन तेरी भिक्षा छुड़वा देंगे। साधन हो गया।
 इसलिए बुद्ध ने अपने संन्यासियों को भिक्खु कहा; भिक्षु, मांगने वाले। और अधिकतर बड़े परिवार के लोग थे बुद्ध के भिक्षुओं में, क्योंकि सम्राट वे खुद थे। उनके सारे संबंधी, उनके सब मित्र, उनकी पत्नी के संबंधी, वे सब दीक्षित हुए थे। उन सबको भीख मंगवाई रास्तों पर।
 बुद्ध जब खुद अपने गांव में आए और भीख मांगने निकले, तो उनके पिता ने उनको जाकर रोका और कहा कि अब हद हुई जाती है! क्या कमी है तेरे लिए? कम से कम इस गांव में तो भीख मत मांग! मेरी इज्जत का तो कुछ खयाल कर। बुद्ध ने कहा, मैं अपनी इज्जत तो गंवा चुका। तुम्हारी भी गंवा दूं, तो साधन हो जाए। इसे कहां तक बचाए रखोगे? इसको छोड़ो! बुद्ध के पिता ने फिर भी नहीं समझा। बुद्ध के पिता ने कहा कि नासमझ, तुझे पता नहीं है।
 उस बुद्ध को बुद्ध के पिता नासमझ कह रहे हैं, जिससे समझदार आदमी इस जमीन पर मुश्किल से कभी कोई होता है! लेकिन बाप का अहंकार बेटे को समझदार कैसे माने! लाखों लोग उसको समझदार मान रहे हैं। लाखों लोग उसके चरणों में सिर रख रहे हैं लेकिन बुद्ध के बाप अकड़कर खड़े हैं।
 कहा, नासमझ, हमारे परिवार में, हमारी कुल-परंपरा में कभी किसी ने भीख नहीं मांगी। बुद्ध ने कहा, आपकी कुल-परंपरा में न मांगी होगी। लेकिन जहां तक मैं याद करता हूं अपने पिछले जन्मों को, मैं सदा का भिखारी हूं। मैं सदा ही भीख मांगता रहा हूं। उसी भीख मांगने की वजह से तुम्हारे घर में पैदा हो गया था; और कोई कारण न था। मगर पुरानी आदत, मैंने फिर अपना भिक्षा-पात्र उठा लिया।
 जब बुद्ध अपने घर पहली बार गए बारह वर्ष के बाद, तो उनकी पत्नी ने बहुत क्रोध से अपने बेटे को कहा कि मांग ले बुद्ध से! ये तेरे पिता हैं। देख तेरे बेशर्म पिता को, ये सब छोड़कर भाग गए हैं। ये मुझे छोड़कर भाग गए हैं। ये मुझसे बिना पूछे भाग गए हैं। तू एक दिन का था, तब ये भाग गए हैं। ये तेरे पिता हैं, इनसे अपनी वसीयत मांग ले। गहरा व्यंग्य कर रही थी पत्नी। पत्नी को पता नहीं कि किससे व्यंग्य कर रही है। वह आदमी अब मौजूद ही नहीं है। शून्य में यह व्यंग्य खो जाएगा। लेकिन पत्नी को तो अभी भी पुराना पत्नी का भाव मौजूद था। उसे बुद्ध दिखाई नहीं पड़ रहे थे। वह जो सामने खड़ा था सूर्य की भांति, वह उसकी अंधी आंखों में नहीं दिखाई पड़ सकता था।
 राग अंधा कर देता है; सूर्य भी नहीं दिखाई पड़ता है। बुद्ध भी बुद्ध की पत्नी को नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। पत्नी अपने बेटे से व्यंग्य करवा रही है कि मांग। हाथ फैला। बुद्ध से मांग ले कि संपत्ति क्या है? मेरे लिए क्या छोड़े जा रहे हैं? गहरा व्यंग्य था। बुद्ध के पास तो कुछ भी न था।
 लेकिन उसे पता नहीं। बुद्ध के बेटे ने, राहुल ने, हाथ फैला दिए। बुद्ध ने अपना भिक्षा-पात्र उसके हाथ में रख दिया, और कहा, मैं तुझे भिक्षा मांगने की वसीयत देता हूं, तू भिक्षा मांग।
 पत्नी रोने-चिल्लाने लगी कि आप यह क्या करते हैं? बाप घबड़ा गए और कहा कि तू गया, अब घर का एक ही दीया बचा, उसे भी बुझाए देता है! बुद्ध ने कहा, मैं इसी के लिए आया हूं इतनी दूर। इसकी संभावनाओं का मुझे पता है। इसकी पिछली यात्राओं का मुझे अनुभव है। तुम इसे जानते हो कि छोटा-सा बच्चा है, मैं नहीं जानता। मैं जानता हूं कि इसकी अपनी यात्रा है, जो काफी आगे निकल गई है। जरा-सी चोट की जरूरत है।
 बाप नहीं समझ पाए; पत्नी नहीं समझ पाई; पर बारह साल का राहुल भिक्षा-पात्र लेकर भिक्षुओं में सम्मिलित हो गया। बहुत मां ने बुलाया; बहुत पिता ने कहा कि बेटे, तू लौट आ। इस बात में मत पड़। पर राहुल ने कहा, बात पूरी हो गई। मेरी दीक्षा हो गई।
 साधन का अर्थ है, वह जो सात्विक होने का भी अहंकार बच रहेगा, उसे भी काटना पड़ता है।
 अगर कोई सिर्फ शुद्ध होने की कोशिश करे, सिर्फ नैतिक होने की, तो उसको साधन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन अगर कोई योग के साथ शुद्ध होने की कोशिश करे, तो फिर साधन की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि योग का साधन साथ ही साथ विकसित होता चला जाता है।
‍♂ आज इतना ही। फिर शेष हम सांझ बात करेंगे। अब थोड़ी देर साधन में प्रवेश करें। ‍♂
‍♂ कीर्तन भी एक साधन है। जो कर पाते हैं, उनके भीतर का अहंकार गिरेगा, टूटेगा। और आप नहीं कर पाते हैं, तो और कोई कारण नहीं; वह अहंकार भीतर बैठा है। वह कहता है, मैं पढ़ा-लिखा आदमी, युनिवर्सिटी से शिक्षित हूं, बड़ी नौकरी पर हूं, मैं ताली बजाऊं, मैं नाचूं! यह ग्रामीणों जैसा काम, मैं करूं! ‍♂
‍♂ वह बैठा है, साधन से टूटेगा। नहीं तो वह बड़ा होता जाएगा। ‍♂
‍♂ सम्मिलित हों कीर्तन में। जब सारे संन्यासी नाच रहे हैं, गीत गा रहे हैं, तब उनके साथ जुड़ें; आनंदित हों; सम्मिलित हों; गीत दोहराएं। ‍♂
[01/06, 8:33 AM] ‪+91 82108 73075‬: _ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 21, भाग 1_





*【श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है】*







*भगवानुवाच :*
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। 46।।



कृष्ण बोले : *_ योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो।_*













*ओशो :*  तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है।
 तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतर्साधना, और तपश्चर्या है बहिर्साधना।
 अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता है–सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका इत्र-फुलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही है; दोनों का केंद्र एक ही है–भोगी का भी शरीर है और तथाकथित तपस्वी का भी शरीर है।
 हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू करता है अंतस से।
 योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके।
 त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में लीन है।
 पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही होती है, जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा?
 लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है।
 रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं आंख मोड़ लूं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या मैं भाग खड़ा होऊं और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूंगा नहीं, तो भी आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा।
 योग अंतर-रूपांतरण है।
 भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है।
 लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा, या जो बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे–योगी कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान में आएगा।
 तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग शरीर पर है। योगी का सारा प्रयोग अंतसचेतना पर है।
 तप दिखाई पड़ने से क्या प्रयोजन है? तपस्वी को बाजार में खड़ा होने की जरूरत ही क्या है? यह प्रश्न तो अपना और परमात्मा के बीच है; यह मेरे और आपके बीच नहीं है। आप मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह सवाल नहीं है। मैं आपके संबंध में क्या कहता हूं, यह सवाल नहीं है। मेरे संबंध में परमात्मा क्या कहता है, वह सवाल है। मेरे संबंध में मैं क्या जानता हूं, वह सवाल है।
 योगी की समस्त साधना, अंतर्साधना है।
 इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से महान है योगी, अर्जुन। ऐसा कहने की जरूरत पड़ी होगी, क्योंकि तपस्वी सदा ही महान दिखाई पड़ता है। जो आदमी रास्तों पर कांटे बिछाकर उन पर लेट जाए, वह स्वभावतः महान दिखाई पड़ेगा उस आदमी से, जो अपनी आरामकुर्सी में लेटकर ध्यान करता हो। महान दिखाई पड़ेगा। आरामकुर्सी में बैठना कौन-सी महानता है?
 लेकिन मैं आपसे कहता हूं, कांटों पर लेटना बड़ी साधारण सर्कस की बात है, बड़ा काम नहीं है। कांटों पर, कोई भी थोड़ा-सा अभ्यास करे, तो लेट जाएगा। और अगर आपको लेटना हो, तो थोड़ी-सी बात समझने की जरूरत है, ज्यादा नहीं!
 आदमी की पीठ पर ऐसे बिंदु हैं, जिनमें पीड़ा नहीं होती। अगर आपकी पीठ पर कोई कांटा चुभाए, तो कई, पच्चीस जगह ऐसी निकल आएंगी, जब आपको कांटा चुभेगा, और आप न बता सकेंगे कि कांटा चुभ रहा है। आपकी पीठ पर पच्चीसत्तीस ब्लाइंड स्पाट्स हैं, हरेक आदमी की पीठ पर। आप घर जाकर बच्चे से कहना कि जरा पीठ में कांटा चुभाओ! आपको पता चल जाएगा कि आपकी पीठ पर ब्लाइंड स्पाट्स हैं, जहां कांटा चुभेगा, लेकिन आपको पता नहीं चलेगा। बस, उन्हीं ब्लाइंड स्पाट्स का थोड़ा-सा अभ्यास करना पड़ता है। व्यवस्थित कांटे रखने पड़ते हैं, जो ब्लाइंड स्पाट्स में लग जाएं। फिर पीठ पर लेटे हुए आदमी को कांटे का पता नहीं चलता है। यह तो फिजियोलाजी की सीधी-सी ट्रिक है, इसमें कुछ मामला नहीं है।
 लेकिन कांटे पर कोई आदमी लेटा हो, तो चमत्कार हो जाएगा, भीड़ इकट्ठी हो जाएगी। लेकिन कोई आदमी अगर आरामकुर्सी पर बैठकर ध्यान को शांत कर रहा हो, तो कोई भीड़ इकट्ठी नहीं होगी, किसी को पता भी नहीं चलेगा। यद्यपि ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है। ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है, अति कठिन काम है। क्योंकि ध्यान पारे की तरह हाथ से छिटक-छिटक जाता है। पकड़ा नहीं, कि छूट जाता है। पकड़ भी नहीं पाए, कि छूट जाता है। एक क्षण भी नहीं रुकता एक जगह। इस ध्यान को एक जगह ठहरा लेना योग है।
 तपस्वी दिखाई पड़ता है; बहुत गहरी बात नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या न होगी। जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या होगी। लेकिन जो आदमी तपश्चर्या कर रहा है, उसके जीवन में योग होगा, यह जरा कठिन मामला है। इसको खयाल में ले लें।
 जो आदमी योग करता है, उसके जीवन में एक तरह की आस्टेरिटी, एक तरह की तपश्चर्या आ जाती है। वह तपश्चर्या भी सूक्ष्म होती है। वह तपश्चर्या बड़ी सूक्ष्म होती है। वह आदमी एक गहरे अर्थों में सरल हो जाता है। वह आदमी गहरे अर्थों में दुख को झेलने के लिए सदा तत्पर हो जाता है। वह आदमी सुख की मांग नहीं करता। उस आदमी पर दुख आ जाएं, तो वह चुपचाप उनको संतोष से वहन करता है। उसके जीवन में तपश्चर्या होती है। लेकिन तपश्चर्या कल्टिवेटेड नहीं होती, इतना फर्क होता है।
 दुख आ जाए, तो योगी दुख को ऐसे झेलता है, जैसे वह दुख न हो। सुख आ जाए, तो ऐसे झेलता है, जैसे वह सुख न हो। योगी सुख और दुख में सम होता है।
 तपस्वी? तपस्वी दुख आ जाए, इसकी प्रतीक्षा नहीं करता; अपनी तरफ से दुख का इंतजाम करता है, आयोजन करता है। अगर एक दिन भूख लगी हो और खाना न मिले, तो योगी विक्षुब्ध नहीं हो जाता; भूख को शांति से देखता है; सम रहता है। लेकिन तपस्वी? तपस्वी को भूख भी लगी हो, भोजन भी मौजूद हो, शरीर की जरूरत भी हो, भोजन भी मिलता हो, तो भी रोककर, हठ बांधकर बैठ जाता है कि भोजन नहीं करूंगा। यह आयोजित दुख है।
 ध्यान रहे, भोगी सुख की आयोजना करता है, तपस्वी दुख की आयोजना करता है। अगर भोगी सिर सीधा करके खड़ा है, तो तपस्वी शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। लेकिन दोनों आयोजन करते हैं।
 योगी आयोजन नहीं करता। वह कहता है, प्रभु जो देता है, उसे सम भाव से मैं लेता हूं। वह आयोजन नहीं करता। वह अपनी तरफ से न सुख का आयोजन करता, न दुख का आयोजन करता। जो मिल जाता है, उस मिल गए में शांति से ऐसे गुजर जाता है, जैसे कोई नदी से गुजरे और पानी न छुए। ऐसे गुजर जाता है, जैसे कमल के पत्ते हों पानी पर खिले; ठीक पानी पर खिले, और पानी उनका स्पर्श न करता हो। लेकिन आयोजन नहीं है।
 ध्यान रहे, किसी भी चीज का आयोजन करके मन को राजी किया जा सकता है–किसी भी चीज का आयोजन करके। दुख का आयोजन करके भी दुख में सुख लिया जा सकता है।
 वैज्ञानिक जानते हैं, मनोवैज्ञानिक जानते हैं उन लोगों को, जिनका नाम मैसोचिस्ट है। दुनिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है ऐसे लोगों का, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं। दूसरे को सताने में सभी मजा लेते हैं; करीब-करीब सभी। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में भी मजा लेते हैं।
 आप कहेंगे, ऐसा तो आदमी नहीं होगा, जो अपने को सताने में मजा लेता हो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी बढ़ी प्रगाढ़ मात्रा में है, जो अपने को सताने में मजा लेता है। अगर उसको खुद को सताने का मौका न मिले, तो वह मौका खोजता है। वह ऐसी तरकीबें ईजाद करता है कि दुख आ जाए। जहां वह छाया में बैठ सकता था, वहां धूप में बैठता है। जहां उसे खाना मिल सकता है, वहां भूखा रह जाता है। जहां सो सकता था, वहां जगता है। जहां सपाट रास्ता था, वहां न चलकर कांटे-कबाड़ में चलता है! क्यों?
 क्योंकि खुद को दुख देने से भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। खुद को दुख देकर भी पता चलता है कि मैं कुछ हूं। तुम कुछ भी नहीं हो मेरे सामने! मैं दुख झेल सकता हूं।
 यह जो स्वयं को दुख देने की वृत्ति है, यह दूसरे को दुख देने की वृत्ति का ही उलटा रूप है। चाहे दूसरे को दुख दें, चाहे अपने को दुख दें, असली रस दुख देने में है।
 इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से योगी बहुत ऊपर है।
 क्योंकि तपस्वी स्वयं को दुख देने की प्रक्रिया में लगा रहता है। मनोविज्ञान की भाषा में वह मैसोचिस्ट है।
 मैसोच नाम का एक लेखक हुआ, जो अपने को ही कोड़े न मार ले, तब तक उसको नींद न आती थी। बिस्तर में कांटे न डाल ले, तब तक उसको नींद न आए। भोजन में जब तक थोड़ी-सी नीम न मिला ले, तब तक उससे भोजन न किया जाए। अगर हमारे मुल्क में मैसोच पैदा हुआ होता, तो हम कहते, बड़ा महात्मा है!
 गांधीजी को भी नीम की चटनी भोजन के साथ खाने की आदत थी। जो भी लोग देखते थे, कहते थे, बड़ी ऊंची बात है! स्वभावतः। लुई फिशर गांधीजी को मिलने आया, तो उन्होंने लुई फिशर की भी थाली में एक बड़ी मोटी पिंडी नीम की चटनी की रखवा दी। जो भी मेहमान आता था, उसको खिलाते थे, क्योंकि खुद खाते थे। जो आदमी अपने को दुख देना सीख जाता है, वह दूसरे को भी दुख देने की चेष्टाएं करता है।
 लुई फिशर ने देखा कि क्या है! और गांधीजी इतने रस से खा रहे हैं! तो उसने भी चखकर देखा, तो सब मुंह जहर हो गया। उसने सोचा कि बड़ा मुश्किल हो गया। उसके साथ रोटी लगाकर खानी, मतलब रोटी भी खराब हो जाए; सब्जी मिलाकर खाओ, सब्जी भी खराब हो जाए! पर उसने सोचा कि न खाएंगे, तो गांधीजी क्या सोचेंगे, कि मैंने इतने प्रेम से चटनी दी और न खाई। भला आदमी। उसने सोचा, इसको इकट्ठा ही गटक जाना बेहतर है सब भोजन खराब करने की बजाय। और अशुभ भी मालूम न पड़े, अशिष्टाचार भी मालूम न पड़े, इसलिए इसे एकदम एक दफा में गटक लेना अच्छा है। फिर पूरा भोजन तो खराब न हो। तो वह पूरी की पूरी चटनी गटक गया। गांधीजी ने रसोइए को कहा कि देखो, चटनी कितनी पसंद आई! और ले आओ!
 लुई फिशर पर जो गुजरी होगी, वह हम समझ सकते हैं।
 गांधीजी के आश्रम में एक सज्जन थे, अभी भी हैं, प्रोफेसर भंसाली। अभी उनका जन्मदिन मनाया गया। महा संत की तरह, गांधीजी के मानने वाले, भंसाली को मानते हैं। पक्के तपस्वी हैं। छः महीने तक गाय का गोबर खाकर ही रहे। तपस्वी पक्के हैं, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं! लेकिन मैसोचिस्ट हैं। इलाज होना चाहिए दिमाग का। पागलखाने में कहीं न कहीं इलाज होना चाहिए। गाय का गोबर खाना! ऐसे तो मौज है आदमी की; जो उसे खाना हो, खाए। लेकिन यह तपश्चर्या बन जाती है। आस-पास के लोग कहते हैं, क्या महान तपस्वी! गाय का गोबर खाकर जीता है! हम तो नहीं जी सकते। नहीं जी सकते, तो फिर हम कुछ भी नहीं हैं; यह बहुत महान है। यह मैसोचिज्म है।
 आज मनोविज्ञान जिसको पहचानता है कि खुद को सताने की वृत्ति बीमार है, रुग्ण है। यह स्वस्थ चित्त का लक्षण नहीं है। कृष्ण हजारों साल पहले पहचानते थे। वे अर्जुन से, जो आज का मनोविज्ञान कह रहा है, वह कह रहे हैं कि तपस्वी से ऊंचा है योगी।
 क्यों? क्योंकि तपस्वी तो सिर्फ, जिसको हम कहें, ऊपरी तरकीबों और ऊपरी व्यर्थ की बातों में, और अपने को कष्ट देकर रस लेता है। और चूंकि कोई आदमी खुद को कष्ट देकर रस लेता है, बाकी लोग भी उसको आदर देते हैं। क्यों आदर देते हैं? अगर एक आदमी सड़क पर खड़े होकर अपने को कोड़े मार रहा है, तो आपको आदर देने का क्या कारण है?
 अगर मनसविद से पूछेंगे, गहरा जो गया है आदमी के मन में, उससे पूछेंगे, तो वे कहेंगे, इसका कारण है कि आप सैडिस्ट हैं, वह मैसोचिस्ट है। वह अपने को सताने में मजा ले रहा है, और आप दूसरे को सताने में मजा ले रहे हैं। आपने चाहा होता कि किसी को कोड़े मारें; उस तकलीफ से भी आपको बचा दिया। वह खुद ही कोड़े मार रहा है। आप भीड़ लगाकर देख रहे हैं, और चित्त प्रसन्न हो रहा है। आप दुष्ट प्रकृति के हैं, इसलिए आप उसमें रस ले रहे हैं।
 अब एक आदमी गोबर खा रहा है। जो दुष्ट प्रकृति के लोग हैं, वे कहे रहे हैं, महात्मा! आप बड़ा महान कार्य कर रहे हैं। उनका वश चले, तो दूसरों को भी गोबर खिला दें। ये अपने हाथ से खाने को राजी हैं, तो उसके चरणों में सिर रखकर कह रहे हैं कि तुम बड़े अदभुत आदमी हो। और जब अहंकार को इस तरह तृप्ति दी जाए, तो वह जो स्वयं को दुख देना वाला आदमी है, वह और दुख देने लगता है। फिर यह विशियस सर्किल है; इसका कोई अंत नहीं है।
 इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगी श्रेष्ठ है तपस्वी से। फिर कहते हैं कि शास्त्र को जो जानता है, उससे योगी श्रेष्ठ है।
 क्योंकि शास्त्र को जानने से सिवाय शब्दों के और क्या मिल सकता है! सत्य तो नहीं मिल सकता; शब्द ही मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, फिलासफी मिल सकती है। और सारे सिद्धांत सिर में घुस जाएंगे और मक्खियों की तरह गूंजने लगेंगे, लेकिन कोई अनुभूति उससे नहीं मिलेगी। हजार शास्त्रों को निचोड़कर कोई पी जाए, तो भी रत्तीभर, बूंदभर अनुभव उससे पैदा नहीं होगा।
 कृष्ण इतनी हिम्मत की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी श्रेष्ठ है शास्त्र को जानने वाले से।
 क्यों? योगी श्रेष्ठ क्यों है? ऐसा योगी भी श्रेष्ठ है, जो शास्त्र को बिलकुल न जानता हो, तो भी श्रेष्ठ है। योग ही श्रेष्ठ है।
 कबीर बिलकुल नहीं जानता शास्त्र को। अगर कोई उससे पूछे, तो वह कहता है कि कागज में क्या लिखा है, हमें कुछ पता नहीं। हम तो वही जानते हैं, जो आंखन देखी है। आंख से जो देखा है, वही जानते हैं। कागज में क्या लिखा है, वह हमें पता नहीं। हम बेपढ़े-लिखे गंवार हैं। हमें कुछ पता नहीं कि कागज में क्या-क्या लिखा है। तुम्हारे वेद, तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे आगम, तुम्हारे पुराण, तुम सम्हालो। हम तो उसकी खबर देते हैं, जो हमने आंख से देखा है। मैं तो कहता आंखन देखी, कबीर कहते हैं, तू कहता है कागद लेखी। किसी पंडित से कह रहे होंगे, तू कहता है कागज की लिखी हुई, और मैं कहता हूं, आंख की देखी हुई।
 शास्त्र-ज्ञान में और योगी में यही फर्क है। शास्त्र-ज्ञान का मतलब है, कागज में जो लिखा है, उसे जान लिया। उसे जान लेने से जानने का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान पैदा नहीं होता। ज्ञान तो पैदा होता है, स्वयं के दर्शन से। और दर्शन की विधि योग है। शुद्धतम चेतना शुद्ध होते-होते न्यू डायमेंशंस आफ परसेप्शन, दर्शन के नए आयाम को उपलब्ध होती है, जहां दर्शन होता है, जहां साक्षात्कार होता है, जहां हम देख पाते हैं, जहां हम जान पाते हैं।
 शास्त्र-ज्ञान प्रमाण बन सकता है, सत्य नहीं। शास्त्र-ज्ञान विटनेस हो सकता है, साक्षी हो सकता है, ज्ञान नहीं। जिस दिन कोई जान लेता है, उस दिन अगर गीता को पढ़े, तो वह कह सकता है कि ठीक। गीता वही कह रही है, जो मैंने जाना। वेद को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान वही कहता है, जो मैंने जाना।
 और ध्यान रहे, जो हम नहीं जानते, उसे हम कभी भी गीता में न पढ़ पाएंगे। हम वही पढ़ सकते हैं, जो हम जानते हैं। इसलिए गीता जब आप पढ़ते हैं, तो उसका अर्थ दूसरा होता है। जब आपका पड़ोसी पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जब और दूसरा पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जितने लोग पढ़ते हैं, उतने अर्थ होते हैं। होंगे ही, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही पढ़ सकता है, जो उसकी क्षमता है।
 हम जब कुछ समझते हैं, तो वह व्याख्या है, वह हमारी व्याख्या है। और शब्दों से बड़ी भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। कोई कुछ समझता है, कोई कुछ समझता है। एक ही शब्द से हजार अर्थ निकलते हैं।
 अभी मैं विनोद भट्ट की एक कथा पढ़ रहा था चार-छः दिन पहले। पढ़ रहा था कि एक गांव के नेता बहुत मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि कोई नया आंदोलन पकड़ में नहीं आ रहा था। और नेता का तो धंधा मर जाए, सीजन मर जाए, अगर कोई नया आंदोलन हाथ में न आए। फिर उन्होंने बहुत सोचा, फिर माथापच्ची की और उनको खयाल आया कि पहले भूमिदान आंदोलन चला, तो वह सफल नहीं हुआ। फिर भूमि-छीनो आंदोलन चला, वह भी सफल नहीं हुआ। हम पत्नी-छीनो आंदोलन क्यों न चलाएं! जिसके पास दो पत्नियां हैं, उसकी एक छीनकर उसको दे दी जाए, जिसके पास एक भी नहीं है।
 पूरा गांव राजी हो गया। कई लोगों के पास पत्नियां नहीं थीं। लोगों ने कहा, यह तो बिलकुल समाजवादी प्रोग्राम है; यह तत्काल पूरा होना चाहिए। और गांव में कई लोग थे, जिनके पास दो-दो पत्नियां थीं। गांव का जमींदार था, जिसके पास दो पत्नियां थीं। सबकी नजरें उन पत्नियों पर थीं। उन्होंने कहा, कुछ न हो, हमको न भी मिली तो कोई हर्जा नहीं; जमींदार की तो छूट जाएगी। कोई फिक्र नहीं; आंदोलन चले।
 आंदोलन चल पड़ा। जमींदार गांव के बाहर गया था। वह एक पत्नी को उठाकर आंदोलनकारी ले गए।
 चल रहा है जुलूस। नारे लग रहे हैं। जमींदार भागा हुआ आया! नेता का पैर पकड़ लिया, और कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हो मेरे ऊपर। नेता ने कहा, अन्याय कुछ भी नहीं। अन्याय तुमने किया है। दो-दो पत्नियां रखे हो, जब कि गांव में कई लोगों के पास एक भी पत्नी नहीं है, आधी भी पत्नी नहीं है। दो-दो रखे हुए हो तुम? यह नहीं चलेगा। उसने कहा कि नहीं, आप समझ नहीं रहे हैं, बहुत अन्याय कर रहे हैं मेरे ऊपर। हाथ-पैर जोड़ता हूं। मुझ पर थोड़ा ध्यान धरो। मेरा थोड़ा खयाल करो। रोने लगा, गिड़गिड़ाने लगा।
 और फिर इस भीड़ में, जब पत्नी को उठाकर लाए थे, तब तक तो सोचा था कि दो पत्नियां हैं जमींदार के पास। जब लाए तो इस बीच में देखा कि साधारण सी औरत है; नाहक परेशान हो रहे हैं। फिर जब वह इतना गिड़गिड़ाने लगा, तो नेताओं ने कहा कि झंझट भी छुड़ाओ। इस स्त्री को कोई लेने को भी राजी न होगा।
 तो कहा, अच्छा तू नहीं मानता है, तो ले जा अपनी पत्नी को; हम छोड़े देते हैं।
 जमींदार बोला कि आप बिलकुल गलत समझ रहे हैं। मेरा मतलब यह नहीं कि इसको लौटा दो। मेरा मतलब, दूसरी को क्यों छोड़ आए? बड़ा अन्याय कर रहे हैं। उसको भी ले जाओ।
 अब जब उसने कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हैं, तो बहुत कठिन था कि नेता समझ पाता कि यह कह रहा है कि दूसरी को भी ले जाओ। मुश्किल था मामला। वह यही समझा स्वभावतः, कि इस पत्नी को छोड़ दो।
 शब्द का अपने आप में अर्थ नहीं है। शब्द की व्याख्या निर्मित होती है। जब गीता में से कुछ आप पढ़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि कृष्ण जो कहते हैं, वह आप समझते हैं। आप वही समझते हैं, जो आप समझ सकते हैं। सत्य का अनुभव हो, तो गीता में सत्य का उदघाटन होता है। सत्य का अनुभव न हो और अज्ञानी के हाथ में गीता हो, तो सिवाय अज्ञान के गीता में से कोई अर्थ नहीं निकलता; निकल सकता नहीं।
 शास्त्र-ज्ञान दूसरी कोटि का ज्ञान है। प्रथम कोटि का ज्ञान तो अनुभव है, स्वानुभव है। पहली कोटि का ज्ञान हो, तो शास्त्र बड़े चमकदार हैं। और पहली कोटि का ज्ञान न हो, तो शास्त्र बिलकुल रद्दी की टोकरी में, उनका कोई मूल्य नहीं है।
 गीता पढ़ने अगर योगी जाएगा, तो गीता में सागर है अमृत का। और गीता पढ़ने अगर बिना योग के कोई जाएगा, तो सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। कोरे खाली शब्द हैं, ऐसे जैसे कि चली हुई कारतूस होती है। चली हुई कारतूस! कितना ही चलाओ, कुछ नहीं चलता। उठा लो सूत्र श्लोक एक गीता का, कर लो कंठस्थ! खाली कारतूस लिए घूम रहे हो; कुछ होगा नहीं। प्राण तो अपने ही अनुभव से आते हैं।
 और कृष्ण खुद कहते हैं अर्जुन को, शास्त्र-ज्ञान भी नहीं है उतना श्रेष्ठ। शास्त्र-ज्ञान से भी ज्यादा श्रेष्ठ है योग।
 और तीसरी बात कहते हैं, सकाम कर्मों से–किसी आशा से की गई कोई भी प्रार्थना, कोई भी पूजा, कोई भी यज्ञ–उससे योग श्रेष्ठ है। क्यों? क्योंकि योग की साधना का आधारभूत नियम, उसकी पहली कंडीशन यह है कि तुम निष्काम हो जाओ। आशा छोड़ दो, अपेक्षा छोड़ दो, फल की आकांक्षा छोड़ दो, तभी योग में प्रवेश है।
 तब यज्ञ तो बहुत छोटी-सी बात हो गई, सांसारिक बात हो गई। किसी के घर में बच्चा नहीं हो रहा है, किसी के घर में धन नहीं बरस रहा है, किसी को पद नहीं मिल रहा है, किसी को कुछ नहीं हो रहा है, तो यज्ञ कर रहा है, हवन कर रहा है।
 वासना और कामना से संयोजित जो भी आयोजन हैं, योग उनसे बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि योग की पहली शर्त है, निष्काम हो जाओ।
 इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू योगी बन। तू योग को उपलब्ध हो। योग से कुछ भी नीचे, इंचभर नीचे न चलेगा। और उन्होंने अब तक योग की ही शिलाएं रखीं, आधारशिलाएं रखीं। योग की ही सीढ़ियां बनाईं। और अब वे अर्जुन से कहते हैं कि योग की यात्रा पर निकल अर्जुन। तेरा मन चाहेगा कि सकाम कोई भक्ति में लग जा, युद्ध जीत जाए, राज्य मिल जाए। लेकिन मैं कहता हूं कि सकाम होना धर्म की दिशा में सम्यक यात्रा-पथ नहीं है। तेरा मन करेगा कि योग के इतने उपद्रव में हम क्यों पड़ें! शास्त्र पढ़ लेंगे, सत्य उसमें मिल जाएगा। सरल, शार्टकट; कोई चेष्टा नहीं, कोई मेहनत नहीं। एक किताब खरीद लाते हैं। किताब को पढ़ लेते हैं। भाषा ही जाननी काफी है। सत्य मिल जाएगा। तेरा मन तुझे कहेगा, शास्त्र पढ़ लो, सत्य मिल जाएगा। कहां जाते हो योग की साधना को? पर तू सावधान रहना। शास्त्र से शब्द के अलावा कुछ भी न मिलेगा। असली शास्त्र तो तभी मिलेगा, जब सत्य तुझे मिल चुका है। उसके पूर्व नहीं, उससे अन्यथा नहीं। और तेरा मन शायद करने लगे…।
 जानकर अर्जुन से ऐसा कहा है। क्योंकि अर्जुन कह रहा है कि दूसरों को मैं क्यों मारूं? दूसरे मर जाएंगे, तो बहुत दुख होगा जगत में। इससे बेहतर है, मैं अपने को ही क्यों न सता लूं! छोड़ दूं राज्य, भाग जाऊं जंगल, बैठ जाऊं झाड़ के नीचे।
 अर्जुन ऐसे सैडिस्ट है। क्षत्रिय जिसको भी होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में निष्णात होना चाहिए, नहीं तो क्षत्रिय नहीं हो सकता। क्षत्रिय जिसे होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में सामर्थ्य होनी चाहिए। तो क्षत्रिय तो दूसरे को सताएगा ही। पर अगर क्षत्रिय दूसरे को सताने से किसी कारण से भी बेचैन हो जाए, तो अपने को सताना शुरू कर देगा।
 इसलिए ध्यान रहे, ब्राह्मणों ने इतने तपस्वी पैदा नहीं किए, जितने क्षत्रियों ने पैदा किए इस भारत में। तपस्वियों का असली वर्ग क्षत्रियों से आया, ब्राह्मणों से नहीं। और बड़े मजे की बात है कि ब्राह्मण तो सदा दुख में जीए, दीनता में, दरिद्रता में। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने कभी भी स्वयं को दुख देने के बहुत आयोजन नहीं किए। क्षत्रियों ने किए स्वयं को दुख देने के आयोजन। बड़े से बड़े तपस्वी क्षत्रियों ने पैदा किए हैं।
 उसका कारण है। और वह कारण यह है कि क्षत्रिय की तो पूरी की पूरी साधना ही होती है दूसरे को सताने की। अगर वह किसी दिन दूसरे को सताने से ऊब गया, तो वह करेगा क्या? जिस तलवार की धार आपकी तरफ थी, वह अपनी तरफ कर लेगा। अभ्यास उसका पुराना ही रहेगा। कल वह दूसरे को काटता, अब अपने को काटेगा। कल वह दूसरे को मारता, अब वह अपने को मारेगा। ब्राह्मण ने कभी भी स्वयं को सताने का बहुत बड़ा आयोजन नहीं किया है।
 इसलिए जब तक ब्राह्मण इस देश में बहुत प्रतिष्ठा में थे, तब तक इस देश में तपस्वी नहीं थे, योगी थे। जब तक ब्राह्मण इस देश में प्रतिष्ठा में थे, तो तपस्वियों की कोई बहुत महत्ता न थी, योगियों की महत्ता थी।
 लेकिन तपस्वियों ने योगियों की महत्ता को बुरी तरह नीचे गिराया, क्योंकि योग तो दिखाई नहीं पड़ता था। तपस्वियों ने कहना शुरू किया कि ये ब्राह्मण? ये कहते तो हैं कि हम गुरुकुल में रहते हैं, लेकिन इनके पास हजार-हजार गाएं हैं, दस-दस हजार गाएं हैं। इनके पास दूध-घी की नदियां बहती हैं। इनके पास सम्राट चरणों में सिर रखते हैं, हीरे-जवाहरात भेंट करते हैं। यह कैसा योग? यह तो भोग चल रहा है!
 और बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन गुरुकुलों में, जिन वानप्रस्थ आश्रमों में ब्राह्मणों के पास आती थी संपत्ति, निश्चित ही आती थी, लेकिन उस संपत्ति के कारण उनका योग नहीं चल रहा था, ऐसी कोई बात न थी। बल्कि सच तो यह है कि वह संपत्ति इसीलिए आती थी कि जिनको भी उनमें योग की गंध मिलती थी, वे उनकी सेवा के लिए तत्पर हो जाते थे। लेकिन भीतर महायोग चल रहा था।
 पर तपस्वियों ने कहा, यह कोई योग है? ये कैसे ऋषि? नहीं; ये नहीं। धूप में खड़ा हुआ, योगी होगा। भूखा, उपवास करता, योगी होगा। शरीर को गलाता, सताता, योगी होगा। रात-दिन अडिग खड़ा रहने वाला योगी होगा।
 क्षत्रिय ऐसा कर सकते थे; ब्राह्मण ऐसा कर भी न सकते थे।
 ब्राह्मणों के पास बहुत डेलिकेट सिस्टम थी, उनके पास शरीर तो बहुत नाजुक था। उनका कभी कोई शिक्षण तलवार चलाने का, और युद्धों में लड़ने का, और घोड़ों पर चढ़कर दौड़ने का, उनका कोई शिक्षण न था। क्षत्रियों का था। तपश्चर्या में वे उतर सकते थे सरलता से। अगर उन्हें खड़े रहना है चौबीस घंटे, तो वे खड़े रह सकते थे। ब्राह्मण तो सुखासन बनाता है। वह तो ऐसा आसन खोजता है, जिसमें सुख से बैठ जाए। वह तो नीचे आसन बिछाता है। वह तो ऐसी जगह खोजता है, जहां मच्छड़ न सताएं उसे।
 क्षत्रिय खड़ा हो सकता था अधिक मच्छड़ों के बीच में। क्योंकि जिसका अभ्यास धनुष-बाणों को झेलने का हो, मच्छड़ उसको कुछ परेशान कर पाएंगे? और जिसको मच्छड़ परेशान कर दें, वह युद्ध की भूमि पर धनुष-बाण, बाण छिदेंगे जब छाती में, तो झेल पाएगा? सारी अभ्यास की बात थी।
 इसलिए जब क्षत्रियों ने धर्म की साधना में गति शुरू की, तो उन्होंने तत्काल तपस्वी को प्रमुख कर दिया और योगी को पीछे कर दिया।
 लेकिन कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, योग ही श्रेष्ठ है अर्जुन। क्योंकि अर्जुन के लिए भी तपश्चर्या सरल थी। अर्जुन भी तपस्वी बन सकता था आसानी से। योगी बनना कठिन था। इसलिए कृष्ण ने तीनों बातें कहीं; सकाम भी तू बन सकता है सरलता से; युद्ध तुझे जीतना, राज्य तुझे पाना। शास्त्र भी पढ़ सकता है तू आसानी से, शिक्षित है, सुसंस्कृत है। शास्त्र पढ़ने में कोई अड़चन नहीं; सत्य मुफ्त में मिलता हुआ मालूम पड़ता है। स्वयं को सताने वाला तपस्वी भी बन सकता है तू। तू क्षत्रिय है; तुझे कोई अड़चन न आएगी। लेकिन मैं कहता हूं तुझसे कि योग श्रेष्ठ है इन तीनों में। अर्जुन, तू योगी बन!
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गीता दर्शन - श्रद्धा से मुझमें लगा हुआ योगी

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ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 21, भाग 2
*भगवानुवाच :*
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।। 47।।

कृष्ण बोले : *_ और संपूर्ण योगियों में भी, जो श्रद्धावान योगी मेरे में लगे हुए अंतरात्मा से मेरे को निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।_*

*ओशो :*  अंतिम श्लोक इस अध्याय का श्रद्धा पर पूरा होता है। कृष्ण कहते हैं, और श्रद्धा से मुझमें लगा हुआ योगी परम अवस्था को उपलब्ध होता है, वह मुझे सर्वाधिक मान्य है।
 दो तरह के योगी हो सकते हैं। एक बिना किसी श्रद्धा के योग में लगे हुए। पूछेंगे आप, बिना किसी श्रद्धा के कोई योग में क्यों लगेगा?
 बिना श्रद्धा के भी लग सकता है। बिना श्रद्धा के लगने का अर्थ यह है कि जीवन के दुखों से जो पीडित हो गया; जीवन के दुखों से जो छिन्न-भिन्न हो गया जिसका अंतःकरण; जीवन के दुख जिसके प्राणों में कांटे से चुभ गए; जीवन की पीड़ा से मुक्त होने के लिए कोई चेष्टा कर सकता है योग की। यह निगेटिव है। जीवन के दुख से हटना है। लेकिन जीवन के पार कोई परमात्मा है, इसकी कोई पाजिटिव श्रद्धा, इसकी कोई विधायक श्रद्धा उसमें नहीं है। इतना ही हो जाए तो काफी है कि जीवन के दुख से मुक्ति हो जाए। नहीं पाना है कोई परमात्मा, नहीं कोई मोक्ष, नहीं कोई निर्वाण। कोई श्रद्धा नहीं है कि ऐसी कोई चीज होगी। इतना ही हो जाए, तो काफी कि जीवन के दुख से छुटकारा हो जाए। जीवन के दुख से छुटकारा जिसको चाहिए, मात्र जीवन के दुख से छुटकारा जिसे चाहिए, जीवन की ऊब से भागा हुआ, जो अपने को किसी सुरक्षित अंतःस्थल में पहुंचा देना चाहता है; वह बिना परमात्मा में श्रद्धा के भी योग में संलग्न हो सकता है।
 क्या वह परमात्मा को नहीं पा सकेगा? पा सकेगा, लेकिन यात्रा बहुत लंबी होगी। क्योंकि परमात्मा जो सहायता दे सकता है, वह उसे न मिल सकेगी। यह फर्क समझ लें।
 इसलिए कृष्ण उसे कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लीन है, मेरी आत्मा से अपनी आत्मा को मिलाए हुए है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं। क्यों?
 एक बच्चा चल रहा है रास्ते पर। कई बार बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़ना पसंद नहीं करता। उसके अहंकार को चोट लगती है। वह बाप से कहता है, छोड़ो हाथ। मैं चलूंगा। बच्चे को बड़ी पीड़ा होती है कि तुम मुझे चलने तक के योग्य नहीं मानते! मैं चल लूंगा; तुम छोड़ो मुझे। बाप छोड़ दे या बेटा झटका देकर हाथ अलग कर ले, तो भी बेटा चलना सीख जाएगा, लेकिन लंबी होगी यात्रा। भूल-चूक बहुत होगी। हाथ-पैर बहुत टूटेंगे। और जरूरी नहीं है कि इसी जन्म में चलना सीख पाए। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं।
 तो बेटा चलना तो चाहता है, लेकिन अपने से अन्य में कोई श्रद्धा का भाव नहीं है। खुद के अहंकार के अतिरिक्त और किसी के प्रति कोई भाव नहीं है।
 तो कृष्ण कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लगा है।
 क्या फर्क पड़ेगा? यह फर्क पड़ेगा कि जो मुझमें श्रद्धा से लगा है, वह श्रम तो करेगा, लेकिन अपने ही श्रम को कभी पर्याप्त नहीं मानेगा, नाट इनफ। मेहनत पूरी करेगा, और फिर भी कहेगा कि प्रभु तेरी कृपा हो, तो ही पा सकूंगा। इसमें फर्क है। अहंकार निर्मित न हो पाएगा, श्रद्धा में जिसका जीवन है। वह कहेगा, मेहनत मैं पूरी करता हूं, लेकिन फिर भी तेरी कृपा के बगैर तो मिलना नहीं होगा। मेरी अकेले की मेहनत से क्या होगा? चलूंगा मैं जरूर, कोशिश मैं जरूर करूंगा, लेकिन मैं गिर जाऊंगा। तेरे हाथ का सहारा मुझे बना रहे। और आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह का जो चित्त है, उसका द्वार सदा ही परम शक्ति को पाने के लिए खुला रहेगा।
 जो श्रद्धावान नहीं है, उसका द्वार क्लोज्ड है, उसका मन बंद है। वह कहता है, मैं काफी हूं।
 लीबनिज ने कहा है, कुछ लोग ऐसे हैं, जैसे विंडोलेस कोई मकान हो, खिड़की रहित कोई मकान हो; सब द्वार-दरवाजे बंद, अंदर बैठे हैं।
 श्रद्धावान व्यक्ति वह है, जिसके द्वार-दरवाजे खुले हैं। सूरज को भीतर आने की आज्ञा है। हवाओं को भीतर प्रवेश की सुविधा है। ताजगी को निमंत्रण है कि आओ। श्रद्धा का और कोई अर्थ नहीं होता। श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे भी विराट शक्ति मेरे चारों तरफ मौजूद है, मैं उसके सहारे के लिए निरंतर निवेदन कर रहा हूं। बस, और कुछ अर्थ नहीं होता।
 मैं अकेला काफी नहीं हूं। क्योंकि मैं जन्मा नहीं था, तब भी वह विराट शक्ति मौजूद थी। और आज भी मेरे हृदय की धड़कन मेरे द्वारा नहीं चलती, उसके ही द्वारा चलती है। और आज भी मेरा खून मैं नहीं बहाता, वही बहाता है। और आज भी मेरी श्वास मैं नहीं लेता, वही लेता है। और कल जब मौत आएगी, तो मैं कुछ न कर सकूंगा। शायद वही मुझे अपने में वापस बुला लेगा। तो जो मुझे जन्म देता, जो मुझे जीवन देता, जो मुझे मृत्यु में ले जाता, जिसके हाथ में सारा खेल है, मैं अकड़कर यह कहूं कि मैं ही चल लूंगा, मैं ही सत्य तक पहुंच जाऊंगा, तो थोड़ी-सी भूल होगी। द्वार बंद हो जाएंगे व्यर्थ ही। विराट शक्ति मिल सकती थी सहयोग के लिए, वह न मिल पाएगी।
 इसलिए अंतिम सूत्र कृष्ण कहते हैं, योग की इतनी लंबी चर्चा के बाद श्रद्धा की बात!
 योग का तो अर्थ है, मैं करूंगा कुछ; श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे अकेले से न होगा। योग और श्रद्धा विपरीत मालूम पड़ेंगे। योग का अर्थ है, मैं करूंगा–विधि, साधन, प्रयोग, साधना। और श्रद्धा का अर्थ है, करूंगा जरूर; लेकिन मैं काफी नहीं हूं, तेरी भी जरूरत पड़ती रहेगी। और जहां मैं कमजोर पड़ जाऊं, तेरी शक्ति मुझे मिले। और जहां मेरे पैर डगमगाएं, तेरा बल मुझे सम्हाले। और जहां मैं भटकने लगूं, तू मुझे पुकारना। और जहां मैं गलत होने लगूं, तू मुझे इशारा करना।
 और मजे की बात यह है कि जो इस भाव से चलता है, उसे इशारे मिलते हैं, सहारे मिलते हैं; उसे बल भी मिलता है, उसे शक्ति भी मिलती है। और जो इस भरोसे नहीं चलता, उसे भी मिलता है इशारा, लेकिन उसके द्वार बंद हैं, इसलिए वह नहीं देख पाता। उसे भी मिलती है शक्ति, लेकिन शक्ति दरवाजे से ही वापस लौट जाती है। उसे भी मिलता है सहारा, लेकिन वह हाथ नहीं बढ़ाता, और बढ़ा हुआ परमात्मा का हाथ वैसा का वैसा रह जाता है।
 ऐसा मत समझना आप कि श्रद्धा का यह अर्थ हुआ कि जो परमात्मा में श्रद्धा करते हैं, उनको ही परमात्मा सहायता देता है। नहीं, परमात्मा तो सहायता सभी को देता है। लेकिन जो श्रद्धा करते हैं, वे उस सहायता को ले पाते हैं। और जो श्रद्धा नहीं करते, वे नहीं ले पाते हैं।
 श्रद्धा का अर्थ है, ट्रस्ट। मैं एक बूंद से ज्यादा नहीं हूं इस विराट जीवन के सागर में। इस अस्तित्व में एक छोटा-सा कण हूं। इस विराट अस्तित्व में मेरी क्या हस्ती है?
 योग तो कहता है कि तू अपनी हस्ती को इकट्ठा कर और श्रम कर। और श्रद्धा कहती है, अपनी हस्ती को पूरा मत मान लेना। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन हवाएं तो उसकी ही ले जाएंगी तेरी नाव को। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन नदी की धार तो उसी की है, वही ले जाएगी। नाव को खोलना जरूर, लेकिन तेरे हृदय की धड़कन भी उसी की है, वही पतवार चलाएगी। यह सदा स्मरण रखना कि कर रहा हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही करता है। चलता हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही चलता है।
 ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा दीया भी सूरज की शक्ति का मालिक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा अणु भी परम ब्रह्मांड की शक्ति के साथ एक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो फिर हम अकेले नहीं हैं, फिर परमात्मा सदा साथ है।
 एक छोटी-सी घटना, और मैं अपनी बात पूरी करूं।
 संत थेरेसा, एक ईसाई फकीर औरत हुई। वह एक बहुत बड़ा चर्च बनाना चाहती थी; बहुत बड़ा, कि जमीन पर इतना बड़ा कोई चर्च न हो। उसके शिखर आकाश को छुएं, और उसके शिखर स्वर्णमंडित हों, और स्वर्ण में हीरे जड़े हों। वह दिन-रात उसी की कल्पना करती थी। फिर एक दिन उसने गांव में आकर कहा कि मुझे कोई कुछ दान कर दो। मैं एक बहुत बड़ा चर्च, मंदिर बनाना चाहती हूं प्रभु के लिए।
 लेकिन जैसे कि सब गांव के लोग होते हैं, वैसे ही उस गांव के लोग भी थे। उसने बहुत, अगर उसके पास डब्बा रहा होगा, तो बहुत बजाया। तीन नए पैसे लोगों ने दिए। लेकिन थेरेसा नाचने लगी, और लोगों से बोली कि अब चर्च बन जाएगा। लोगों ने कहा, डब्बा तो इतना छोटा है, चर्च बहुत बड़ा। क्या डब्बा पूरा भर गया? तो भी क्या होगा?
 डब्बा खोला। भरा तो क्या था, कुल तीन पैसे थे! फिर भी संत थेरेसा ने कहा कि नहीं, बन जाएगा चर्च। लोगों ने कहा, तू पागल तो नहीं हो गई। तीन पैसे में उतना बड़ा चर्च बनाने का इरादा रखती है! एक ईंट भी न आएगी! तू है दुबली-पतली गरीब औरत, और ये तीन पैसे हैं। तू + तीन पैसे! कितना बड़ा चर्च बनाने का इरादा है? हिसाब क्या है?
 संत थेरेसा ने कहा, तुम एक और मौजूद है हम दोनों के बीच, उसे नहीं देख रहे हो। मैं, परमात्मा, तीन पैसे–जोड़ो। चर्च बन जाएगा। जोड़ो! मुझमें तो कुछ भी नहीं है; मुझसे क्या होगा! तीन पैसे में क्या रखा है, उससे क्या होगा! लेकिन हम दोनों की जितनी ताकत थी, वह हमने पूरी लगा दी। अब परमात्मा बीच में है, वह सम्हाल लेगा।
 और जिस जगह पर संत थेरेसा ने यह कहा था, उस जगह पर संत थेरेसा का कैथेड्रल है–जमीन पर श्रेष्ठतम मंदिरों में से एक। वह अब भी खड़ा है। उस चर्च के नीचे पत्थर पर यह लिखा है कि हम हार गए इस गांव के लोग इस गरीब औरत से, जिसने कहा, तीन पैसे, मैं और धन एक और, जो तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, मुझे दिखाई पड़ता है।
 श्रद्धा का इतना ही अर्थ है। श्रम आपका, शक्ति आपकी, लेकिन काफी नहीं; तीन पैसे से ज्यादा नहीं पड़ेगी। योग आपका, लेकिन तीन पैसे से ज्यादा का नहीं हो पाएगा।
 इसलिए योग की इतनी चर्चा करने के बाद कृष्ण ने जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह है कि श्रद्धायुक्त जो मुझमें है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं।
‍♂ इतना ही इस बार। ‍♂
‍♂ अब थोड़ी देर, वह जो अदृश्य है, उस अदृश्य के गीत में ये संन्यासी संलग्न होंगे। आप भी संलग्न हों। कौन जाने किस क्षण उसकी वीणा का स्वर आपके भीतर भी बजने लगे; कोई नहीं जानता। ‍♂
‍♂ रोकें मत। आज तो आखिरी दिन है। यह पूरा का पूरा स्थान गूंज उठे आनंद से। ‍♂
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कामी तृप्त हो सकता है, प्रेमी नहीं!

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कामी तृप्त हो सकता है, प्रेमी नहीं!
काम का अंत है, सीमा है; प्रेम का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं! प्रेम आदि-अनादि है। प्रेम जैसा पहले दिन होता है, वैसा ही अंतिम दिन भी होगा! जो चुक जाए, उसे तुम प्रेम ही मत समझना; वह वासना रही होगी। जिसका अंत आ जाए, वह शरीर से संबंधित है! आत्मा से जिस चीज का भी संबंध है, उसका कोई अंत नहीं है।
अगर मंजिल हो तो मृत्यु हो जाएगी! प्रेम का जो अधूरापन है, वह उसकी शाश्वतता है। इसे ध्यान में रखना कि जो भी चीज पूरी हो जाती है, वह मर जाती है। पूर्णता मृत्यु है! सिर्फ वही जी सकता है शाश्वत, जो शाश्वत रूप से अपूर्ण है, अधूरा है, आधा है; और तुम कितना ही भरो, वह अधूरा रहेगा, आधा होना उसका स्वभाव है।
तुम कितने ही तृप्त होते जाओ, फिर भी तुम पाओगे कि हर तृप्ति और अतृप्त कर जाती है। यह ऐसा जल नहीं है कि तुम पी लो और तृप्त हो जाओ, यह ऐसा जल है कि तुम्हारी प्यास को और बढ़ाएगा। इसलिए प्रेमी कभी तृप्त नहीं होता, और इसीलिए उसके आनंद का कोई अंत नहीं है। क्योंकि आनंद का वहीं अंत हो जाता है, जहां चीजें पूरी हो जाती हैं। शरीर भी मिटता है, मन भी मिटता है; पर आत्मा तो चलती चली जाती है, निरन्तर, लगातार! वह यात्रा अनंत की है, कोई मंजिल नहीं है !
ओशो
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शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

मन हमारा संग्रह है

Osho

*मन*
....हम जो भी करते हैं, वह मन का पोषण है। मन को हम बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं। हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, हमारा संग्रह, सब हमारे मन को मजबूत और शक्तिशाली करने के लिए है। बूढ़ा देखें, बूढ़ा आदमी कहता है, मुझे सत्तर साल का अनुभव है। मतलब? उनके पास सत्तर साल पुराना मजबूत मन है। और जैसे शराब पुरानी अच्छी होती है, लोग सोचते हैं, पुराना मन भी अच्छा होता है। वैसे शराब और मन में कुछ तादात्म्य है, एकरसता है। जैसे शराब और नशीली हो जाती है, वैसे ही मन जितना पुराना होता है, उतना नशीला हो जाता है। चेतना नहीं बदलती, चेतना तो वही बनी रहती है। मन की पर्त चारों तरफ घिर जाती है। मांग वही बनी रहती है, वासना वही बनी रहती है। शरीर सूख जाता, वासना हरी ही बनी रहती है।
नहीं, अनुभव वगैरह से कुछ नहीं। जिसको संसार का अनुभव कहते हैं, वह मन का पोषण है सिर्फ। संन्यासी अ-मन की तरफ चलता। गृहस्थ मन की तरफ चलता।
सभी लोग मन लेकर पैदा होते हैं, लेकिन धन्य हैं वे, जो मन के बिना मर जाते हैं। सभी लोग मन लेकर जन्मते हैं, लेकिन अभागे हैं वे, जो मन को लेकर ही मर जाते हैं। फिर जीवन में कोई फायदा न हुआ। फिर यह यात्रा बेकार गई। अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु समाधि बन जाती है। और अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु के बाद फिर दूसरा जन्म नहीं होता, क्योंकि जन्म के लिए मन जरूरी है। मन ही जन्मता है। मन ही अपूर्ण वासनाओं के कारण, जो वासनाएं पूरी नहीं हो सकीं, उनके लिए पुनः-पुनः जन्म की आकांक्षा करवाता है। जब मन ही नहीं रहता, तो जन्म नहीं रहता। मृत्यु पूर्ण हो जाती है।
हम सब भी मरते हैं, हम अधूरे मरते हैं, क्योंकि वहां जन्म की आकांक्षा भीतर जीती चली जाती है। वह जन्म की वासना फिर नया शरीर ग्रहण कर लेती है। संन्यासी जब मरता है, तो पूरा मरता है—टोटल डेथ। शरीर ही नहीं मरता, मन भी मरता है। भीतर कोई और जीने की वासना नहीं रह जाती है। और जो पूरा मर जाता है, वह उस जीवन को उपलब्ध हो जाता है, जिसका फिर कोई अंत नहीं।
लेकिन मार्ग क्या है? मार्ग है अ-मन, नो-माइंड। धीरे-धीरे मन को गलाना, छुड़ाना, हटाना, मिटाना है। ऐसा कर लेना है कि भीतर चेतना तो रहे, मन न रह जाए। चेतना और बात है। चेतना हमारा स्वभाव है। मन हमारा संग्रह है....
☔☔☔...ओशो...
Osho

अनन्य प्रेम

Osho
ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 22, भाग 2
*प्रश्न :*
*_ भगवान श्री, एक छोटा-सा प्रश्न है। अनन्य प्रेम को यहां मूल संस्कृत में कहा गया है, आसक्तमना। मेरे में आसक्त मन वाले का कैसा आध्यात्मिक अर्थ होगा? इसे स्पष्ट करें।_*

*ओशो :*  शब्द तो वही रहते हैं। रुख बदल जाए, तो सब बदल जाता है।
 परमात्मा में आसक्त मन वाला। और परमात्मा में आसक्त मन वाला जब हम कहेंगे, तो आसक्त शब्द का वही अर्थ न रह जाएगा, जो धन में आसक्ति वाला, यश में आसक्ति वाला।
 शब्द तो बदल जाते हैं तत्काल, जैसे ही उनका आयाम बदलता है। हमारे पास शब्द तो थोड़े हैं। और हमारे सब शब्द जूठे हैं। कृष्ण के पास भी कोई उपाय नहीं है नए शब्दों के बोलने का। हमारे ही शब्दों का उपयोग करना है। अगर कहेंगे प्रेम, तो हमारे मन में जो खयाल आता है, वह हमारे ही प्रेम का आता है। अगर कहेंगे आसक्त, तो हमारे मन में जो अर्थ आता है, वह हमारी ही आसक्ति का आता है। लेकिन जो शर्त लगी है, परमात्मा में आसक्त मन वाला!
 परमात्मा में कौन होता है आसक्त?
 तो कृष्ण ने पहले बहुत व्याख्या की है उसकी, कि जो सब भांति अनासक्त हो गया, वही परमात्मा में आसक्त होता है। परमात्मा में आसक्ति का मतलब है, पूर्ण अनासक्ति। पूर्ण अनासक्ति न हो, तो परमात्मा में आसक्ति न होगी। जरा-सी भी आसक्ति कहीं बची हो, तो परमात्मा में आसक्ति न होगी।
 तो चाहे हम कहें, आसक्ति। आसक्ति का अर्थ है, जिसमें हम आकर्षित हो रहे हैं; जिसमें हम खींचे जा रहे हैं; जिसमें हम बुलाए जा रहे हैं; जिसमें हम पुकारे जा रहे हैं; जिसके बिना हम न जी सकेंगे। तो चाहे कहें आसक्ति, चाहे कहें प्रेम, चाहे कहें अनन्य राग, चाहे कहें भक्ति; इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इतना ही प्रयोजन है कि जो परमात्मा की तरफ खिंचा जा रहा है; जिसके आकर्षण का बिंदु परमात्मा हो गया। और परमात्मा का क्या अर्थ होता है?
 परमात्मा का अर्थ है, सब कुछ। जो इस सब को घेरे हुए है, जो इस सब के भीतर छिपा है, वह निराकार और अरूप जो सब रूपों में व्याप्त है, उसकी तरफ जो आकर्षित हो गया। जो अब बूंद में आकर्षित नहीं है, बूंद में छिपे महासागर में आकर्षित है। जो व्यक्ति में आकर्षित नहीं है, व्यक्ति के भीतर छिपे अव्यक्ति में आकर्षित है। जो अब अगर अपनी पत्नी को भी प्रेम कर रहा है, तो पत्नी को प्रेम नहीं कर रहा है, पत्नी में छिपे परमात्मा को प्रेम कर रहा है। अब जो सब तरफ, उस परमात्मा से ही खींचा जा रहा है और बुलाया जा रहा है। जो सब भांति उसी की तरफ दौड़ रहा है, उसी महासागर के मिलन की तरफ। तो मुझ परमात्मा में आसक्त मन वाला। तो प्रेम कहें, आसक्ति कहें, इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क इससे पड़ता है कि आप उसका उपयोग क्या कर रहे हैं।
 शब्द अपने आप में अर्थहीन हैं। सब कुछ उपयोग पर निर्भर करता है। शब्दों में खुद कोई अर्थ नहीं है। अर्थ तो हम डालते हैं और हम देते हैं। और अर्थ बदल जाता है तत्काल, जैसे ही शब्द का आयाम बदलता है, तब अर्थ बदल जाता है।
 यह शर्त है कृष्ण की कि परमात्मा की तरफ आ रहे मन वाला अगर तू है, तो मुझे सुन। क्योंकि वे जो कहने जा रहे हैं, वह जो परमात्मा की तरफ पीठ करके चल रहा है, वह न सुन सकेगा; उसके किसी काम का नहीं है। वह बहरे से बात करनी हो जाएगी। उसका कोई अर्थ नहीं है।
 अभी मैं एक झेन फकीर का जीवन पढ़ता था। एक युवक आया है उस फकीर के पास और उस युवक ने कहा कि मैंने सुना है, बुद्ध ने कहा है कि मेरी बात सब के उपयोग की है। धर्म सब के लिए है। लेकिन, उस युवक ने कहा, इसमें मुझे बड़ी शंका होती है। मुझे शंका होती है कि बुद्ध के वचन अगर सब के उपयोग के लिए हैं, तो बहरों का क्या होगा? क्योंकि बहरे तो सुन ही न सकेंगे, तो उनके लिए उपयोग कैसे होगा? बुद्ध खड़े भी रहें, अंधे तो देख ही न सकेंगे, तो सत्संग कैसे होगा?
 उस फकीर ने क्या किया? उस फकीर ने वही किया, जो फकीरों को करना चाहिए। पास में पड़ा था एक डंडा, उसने जोर से उस आदमी के पेट में डंडे का जोर से धक्का दिया। उस आदमी ने चीख मारी। उसने कहा, आप यह क्या करते हैं? तो उस फकीर ने कहा, अहा! मैं तो समझता था कि तुम गूंगे हो। तो तुम गूंगे नहीं हो, बोलते हो! जरा मेरे पास आओ। तो वह आदमी डरता हुआ पास आया। उसने कहा, अहा! मैं तो सोचता था कि तुम लंगड़े हो। लेकिन तुम तो चलते हो!
 उस आदमी ने कहा, इन बातों से क्या मतलब जो मैं पूछने आया हूं! तो उस फकीर ने कहा कि तुम इसकी फिक्र छोड़ो, दूसरे अंधे, लूले और गूंगों की। अगर तुम गूंगे नहीं हो, लूले नहीं हो, अंधे नहीं हो, तो कम से कम तुम लाभ ले लो। और जब कोई अंधे आएंगे, तब उनसे मैं निपट लूंगा। जब कोई गूंगे आएंगे, तब उनसे मैं निपट लूंगा। तुम फिक्र छोड़ो। इतना तय है कि तुम अंधे, लूले, लंगड़े, गूंगे नहीं हो। तुमने क्या लाभ लिया बुद्ध के वचनों का? उसने कहा, अभी तक तो कुछ नहीं लिया! तो उस फकीर ने कहा कि पागल, तू फिक्र कर रहा है उनकी, जो न ले सकेंगे; और तू अपनी फिक्र कब करेगा, जो ले सकता है!
 तो उस फकीर ने कहा कि जो गूंगे हैं, वे तो गूंगे हैं ही; और जो बहरे हैं, वे तो बहरे हैं ही; लेकिन तेरे बहरेपन को हम क्या करें? तेरे गूंगेपन को हम क्या करें?
 कृष्ण, अर्जुन का गूंगापन, बहरापन टूट जाए, उसकी पीठ मुड़ जाए, वह परमात्मा की तरफ उन्मुख हो जाए–क्योंकि अभी तक अर्जुन की जो उन्मुखता है, वह युद्ध से बचने की है। किसी तरह युद्ध से बच जाए। यह हिंसा न हो। बस, इससे ज्यादा उसकी उत्सुकता नहीं है।
 यह बड़े मजे की बात है, अर्जुन किसी ब्रह्मज्ञान को लेने कृष्ण के पास गया नहीं था। ये कृष्ण जबर्दस्ती उसको ब्रह्मज्ञान दिए देते हैं! कारण है। क्योंकि कृष्ण के पास जो है, वही दे सकते हैं। आप अगर अमृत के सागर के पास विष लेने भी जाएं, तो भी अमृत का सागर क्या कर सकता है? वह आपको अमृत ही दे देगा। भला आप पीछे पछताएं कि गलत जगह पहुंच गए। फंस गए!
 अर्जुन तो एक बहुत छोटा-सा सवाल लेकर गया था। उसने सोचा भी न होगा कि इतनी बड़ी गीता उससे पैदा होगी। उसने सोचा भी न होगा कि कृष्ण ज्ञान की इतनी गहराइयों में उसे ले जाएंगे।
 मगर कृष्ण की भी अपनी मजबूरी है। कृष्ण के पास जो है, वे वही दे सकते हैं। आगे वे कुछ ऐसी गहन बातें कहने वाले हैं, जो कि अर्जुन अगर पूरी तरह उन्मुख हो, तो ही समझ पाएगा, इसलिए यह शर्त लगाई है।
Osho

परमात्मा की खोज

Osho
_ओशो: गीता दर्शन, वॉल्यूम 3, अध्याय 6, प्रवचन 23, भाग 1_
*【परमात्मा की खोज】*
*भगवानुवाच :*
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। 3।।
कृष्ण बोले : *_ परंतु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्व से जानता है अर्थात यथार्थ मर्म से जानता है।_*
*ओशो :*  प्रभु की यात्रा सरल भी है और सर्वाधिक कठिन भी। सरल इसलिए कि जिसे पाना है, उसे हमने सदा से पाया ही हुआ है। जिसे खोजना है, उसे हमने वस्तुतः कभी खोया नहीं है। वह निरंतर ही हमारे भीतर मौजूद है, हमारी प्रत्येक श्वास में और हमारे हृदय की प्रत्येक धड़कन में। इसलिए सरल है प्रभु को पाना, क्योंकि प्रभु की तरफ से उसमें कोई भी बाधा नहीं है। इसे ठीक से ध्यान में ले लेंगे।
 प्रभु को पाना सरल है, क्योंकि प्रभु सदा ही अवेलेबल है, सदा ही उपलब्ध है। लेकिन प्रभु को पाना कठिन बहुत है, क्योंकि आदमी सदा ही प्रभु की तरफ पीठ किए हुए खड़ा है। आदमी की तरफ से सारी कठिनाइयां हैं, प्रभु की तरफ से कोई भी कठिनाई नहीं है। उसके मंदिर के द्वार सदा ही खुले हैं, लेकिन हम उन मंदिर के द्वारों की तरफ पीठ किए हैं। पीठ ही नहीं किए हैं, पीठ करके भाग भी रहे हैं। भाग ही नहीं रहे हैं, अपना पूरा जीवन, अपनी पूरी शक्ति, अपनी पूरी सामर्थ्य, किस भांति उस मंदिर से दूर निकल जाएं, इसमें लगा रहे हैं।
 यद्यपि हम निकल न पाएंगे। हजारों-हजारों जन्मों में दौड़कर भी उस मंदिर से हम दूर न जा पाएंगे। और जिस दिन भी हम पीठ फेरकर देखेंगे, पाएंगे कि वह मंदिर वहीं का वहीं मौजूद है–वहीं, जहां से हमने दौड़ना शुरू किया था।
 आदमी की तरफ से बहुत कठिनाइयां हैं। इसलिए कृष्ण के इस सूत्र में उन्होंने कहा, करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है। और प्रयास करने वाले करोड़ों में कोई कभी एक मुझे उपलब्ध होता है।
 दो बातें। करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास करता है। इसे समझें। और फिर प्रयास करने वाले करोड़ों में भी कभी कोई एक मुझे परायण हुआ, मुझे समर्पित हुआ, उपलब्ध होता है।
 क्यों करोड़ों लोगों में कभी कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के लिए, जिसे पाए बिना कोई चारा नहीं, जीवन में कोई अर्थ नहीं? क्यों करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के लिए, जिसे पाकर सब पा लिया जा सकता है? क्या होगा कारण? होना तो ऐसा चाहिए कि करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास न करे, बाकी सारे लोग प्रयास करें। क्योंकि परमात्मा आनंद है, जीवन है, अमृत है। तो करोड़ों में कोई एक क्यों प्रयास करता है? इसके कारण को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि वह उपयोगी है।
 सबसे पहला कारण तो यह है कि जो हमें मिला ही हुआ है, उसे पाने के लिए हम क्यों कर चेष्टा करें? सागर की मछली सब कुछ खोजती होगी, सागर को कभी नहीं खोजती है। सागर की मछली सब खोजों पर निकलती होगी, लेकिन सागर की खोज पर कभी नहीं निकलती है। उसी में पैदा होती है, उसी में जीती है, बड़ी होती है, श्वास लेती है, उसी में समाप्त होती है। उसे पता भी नहीं चलता कि सागर है।
 मछली को भी सागर का तभी पता चलता है, जब उसे सागर के बाहर निकालो। अगर मछली सागर के बाहर न आए, तो उसे कभी भी पता नहीं चलता कि सागर है। असल में सागर के साथ इतनी एक है कि पता भी कैसे चले! पता चलने के लिए दूरी चाहिए।
 तो मछली तो कभी-कभी सागर के बाहर भी आ जाती है, आदमी तो परमात्मा के बाहर कभी नहीं आता है। मछली को तो कोई मछुवा कभी फांस भी लेता है जाल में और सागर के तट पर भी तड़फने को छोड़ देता है। आदमी के लिए तो ऐसा कोई तट नहीं है, जहां परमात्मा मौजूद न हो। आदमी जहां भी जाए, वहां परमात्मा मौजूद है। जो इतना ज्यादा मौजूद है, उसकी हम फिक्र छोड़ देते हैं, उसका हमें खयाल भूल जाता है।
 ध्यान रहे, हमारे ध्यान की जो धारा है, वह जो गैर-मौजूद है, उसकी तरफ बहती है। जैसे आपका एक दांत टूट जाए, तो जीभ उस दांत की तरफ चलने लगती है। जो दांत मौजूद हैं, उनकी तरफ नहीं चलती। और भलीभांति एक दफे पता लगा लिया कि टूट गया, खाली जगह छूट गई, फिर भी दिनभर जीभ वहीं दौड़ती रहती है! जहां अभाव है, वहां हम खोजते हैं। जिसका अति भाव है, जो एकदम मौजूद है घना होकर, वहां हम नहीं खोजते।
 मन के गहरे नियमों में एक यह है कि जो हमें उपलब्ध है, उसकी हम विचारणा छोड़ देते हैं। जो हमें उपलब्ध नहीं है, उसकी हम खोज करते हैं। जो हमारे पास है, उसे हम भूल जाते हैं। जो हम से दूर है, उसकी हम स्मृति से भर जाते हैं। जिसे हम खो देते हैं, उसका पता चलता है; और जिसे हम कभी नहीं खोते, उसका पता भी नहीं चलता।
 परमात्मा की खोज पर निकलने में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह मन का यह नियम है कि हमें उसका ही पता चलता है, जो नहीं है। निगेटिव का पता चलता है, पाजिटिव का पता नहीं चलता। टूट गया दांत, तो पता चलता है। वह दांत चालीस साल से आपके पास था, तब इस जीभ ने कभी उसकी फिक्र न की। आज नहीं है, तो उसकी तलाश है!
 मन निगेटिविटी, मन जो है नकार की तरफ दौड़ता है। वैसे ही जैसे पानी गङ्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा ही मन अभाव की तरफ, एब्सेंस की तरफ, जो नहीं है, उसकी तरफ दौड़ता है। जो है, उसकी तरफ मन नहीं दौड़ता।
 और परमात्मा सर्वाधिक है। टू मच। इतना ज्यादा है कि उसके सिवाय और कुछ भी नहीं है। वही वही है। सब तरफ वही है। आंख खोलें तो, आंख बंद करें तो; जागें तो, सो जाएं तो। सब तरफ वही वही है। सागर की तरह हमें घेरे हुए है। इसलिए करोड़ों में एक उसकी खोज पर निकलता है।
 अगर परमात्मा की खोज पर निकलना हो, करोड़ों में एक बनना हो, तो इस सूत्र से विपरीत चलेंगे तभी, अन्यथा कभी नहीं। जो आपके पास हो, उसका स्मरण रखें; और जो आपसे दूर हो, उसे भूल जाएं। जो दांत अभी मुंह में हो, उसे जीभ से टटोलें; और जो गिर जाए, उसे मत टटोलें। जो आज सुबह रोटी मिली हो, उसका आनंद लें; जो रोटी कल मिलेगी, उसके सपने मत देखें। जो नहीं है, उसे छोड़ दें; और जो है, उसे पूरे आनंद से जी लें। तो आप करोड़ों में एक बनना शुरू हो जाएंगे।
 क्योंकि ध्यान रखना, यात्रा सीधी परमात्मा की नहीं हो सकती, जब तक आपके मन का ढंग, आपके मन की व्यवस्था न बदले।
 कभी आपने खयाल किया कि आप सोचते हैं, एक मकान बना लें। जब तक नहीं बनाते, तब तक मन बिलकुल आर्किटेक्ट हो जाता है। कितनी कल्पनाएं करता है! कितने नक्शे बनाता है! फिर मकान बन जाता है। फिर उसी मकान में जीने लगते हैं, और मकान को भूल जाते हैं। हां, रास्ते से जो निकलते होंगे, उनके मन में आपके मकान के लिए विचार आता होगा। आपको भर नहीं आता, जो उसके भीतर रहता है!
 पढ़ रहा था मैं, एक युवक का विवाह हो रहा है चर्च में। घंटियां बजी हैं, और मोमबत्तियां जली हैं। और मित्र उपहार लाए हैं, और धन्यवाद दे रहे हैं। लेकिन तभी अचानक वह युवक उदास हो गया। तो चर्च के जिस पादरी ने विवाह करवाया था, उसने पूछा कि इतने उदास क्यों हो गए हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए, क्योंकि जिसे तुमने चाहा था, वह स्त्री तुम्हें मिल गई!
 वह युवक कहने लगा, इसीलिए तो उत्साह एकदम क्षीण हो गया है। उत्साह एकदम क्षीण हो गया है। जिसे चाहा था, वह मिल गई, इसीलिए तो उत्साह एकदम क्षीण हो गया है। उस युवक ने कहा कि आज मैं सोचता हूं कि मजनू के रास्ते में जिन लोगों ने बाधाएं डालीं और लैला को न मिलने दिया, उन्होंने बड़ी कृपा की। क्योंकि मजनू लैला को याद तो करता रहा। जिन मजनुओं को उनकी लैलाएं मिल जाती हैं, वे और दूसरों की लैलाओं की भला फिक्र करें, अपनी लैलाएं भूल जाते हैं!
 मन का नियम है, जो मिल जाता है, वह भूल जाता है। और परमात्मा तो मिला ही हुआ है। उसे तो याद करने की सुविधा भी नहीं बनती।
 तो मन के नियम को बदलना पड़ेगा। मन का नियम अभी गङ्ढों की तरफ दौड़ना है। मन को पर्वतों की तरफ दौड़ाना शुरू करना पड़ेगा। और कोई कठिनाई नहीं है।
 जिंदगी में बहुत कुछ मिला है, उसमें आह्लाद अनुभव करें। जो मिला है, उसमें प्रसन्न हों। जो है पास, उसमें संतुष्ट हों। जो पास है, उसके लिए प्रभु को धन्यवाद दें। जो है, उसे देखें; और जो नहीं है, उसे छोड़ें। बहुत शीघ्र आप पाएंगे कि आपकी परमात्मा की खोज शुरू हो गई।
 इसलिए जिन लोगों ने परमात्मा की खोज में संतोष को अनिवार्य बताया है, उसका कारण भी आप समझ लें, वह इस सूत्र में छिपा हुआ है। संतोष में अपने आप कोई मूल्य नहीं है। संतोष अपने आप में कोई वेल्यू नहीं है; उसकी अपने आप में कोई कीमत नहीं है। क्योंकि मरा हुआ आदमी भी, मरा-मराया आदमी भी संतुष्ट दिखाई पड़ सकता है। ऐसा आदमी भी संतुष्ट मालूम पड़ सकता है, जिसमें जरा भी दौड़ने की हिम्मत नहीं है। कायर है, भयभीत है, चुनौती लेने से डरता है। नहीं; संतोष में अपने आप में मूल्य नहीं है, लेकिन संतोष का एक ही मूल्य है, वह परमात्मा की तरफ उन्मुख करने में कीमती है।
 इसलिए मैं आपको कहता हूं कि संतोष का अब तक जो भी खयाल दुनिया में दिया गया कि संतोषी सदा सुखी, वह सब बच्चों की बातें हैं। सच तो यह है कि संतोषी के जीवन में एक नया दुख पैदा होता है, वह दुख परमात्मा को पाने का दुख है। वह और किसी की जिंदगी में पैदा नहीं होता। हां, संतोषी की जिंदगी में आस-पास की चीजों से सुख हो जाता है। क्योंकि जो उसे है, वह उसमें प्रसन्न है। वह उसे भोग रहा है। वह परमात्मा के प्रति अनुगृहीत है।
 लेकिन इस संतोषी के जीवन में एक नई आग जलनी शुरू होती है, वह परमात्मा की खोज है। क्योंकि जब वह पाता है कि साधारण से भोजन में जो मुझे उपलब्ध है, अगर मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है; साधारण-सा झोपड़ा जो मुझे उपलब्ध है, जब मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है; साधारण-सा जीवन जो मुझे उपलब्ध है, जब मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है–तो वह जो जीवन का मूलाधार है, जो मेरे होने के पहले से मेरे पास है, और मेरे न हो जाने पर भी मेरे पास होगा, मेरी लहर बनेगी और मिटेगी, और वह रहेगा, उसे पा लेने से क्या होगा! उसको पा लेने की एक नई पीड़ा, एक नई प्रसव-पीड़ा शुरू होती है।
 संतोष को योग ने एक अनिवार्य सूत्र माना है परमात्मा की तलाश के लिए। अगर आप सोचते हों कि संतोष केवल संसार की दौड़ से बच जाने की तरकीब है, तो आपको संतोष की कीमिया का कोई पता नहीं। वह तो बड़ी गौण बात है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जो अपने चारों तरफ जो मौजूद है, उससे संतुष्ट हो जाता है, उसके भीतर उसकी खोज शुरू होती है, जो सबसे ज्यादा गहराई में सदा से मौजूद है। उसके रस की खोज शुरू हो जाती है।
 करोड़ों में इसीलिए एक आदमी! वह जिसके पास पाजिटिव माइंड है।
 हमारे सबके पास निगेटिव माइंड है, हमारे पास नकारात्मक मन है। हमें मित्र तब दिखाई पड़ता है, जब वह घर से जा चुका होता है। हमें सुख का भी तब पता चलता है, जब वह हाथ से छूट गया होता है। हमें प्रेम का भी तब पता चलता है, जब प्रेम का दीया बुझने लगता है। हमें पता ही तब चलता है, जब कोई चीज समाप्त होती है। जब कोई मरता है, तभी हमें पता चलता है कि वह था। जब तक वह था, तब तक हमें पता ही नहीं चलता।
 पिता घर में मौजूद है, बेटे को बिलकुल पता नहीं चलता कि है। जिस दिन मरेगा पिता, उस दिन पता चलेगा। उस दिन रोएगा, छाती पीटेगा। और जब तक पिता मौजूद था, तब कभी दो क्षण भी उसके पास नहीं बैठा था। बड़े आश्चर्य की बात है। तब तक कभी फुर्सत न मिली थी कि दो क्षण उसके पैरों पर हाथ रखकर बैठ जाए। अब मुर्दे की छाती पर सिर पटकेगा।
 निगेटिव माइंड है। जो नहीं है, बस, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। जो है, वह गैर-महत्वपूर्ण हो जाता है।
 इसीलिए दुनिया में कोई आदमी अमीर नहीं हो पाता। कितना ही धन मिल जाए, गरीबी नहीं मिटती। क्योंकि निगेटिव माइंड गरीब है। निगेटिव माइंड कभी अमीर नहीं हो सकता। क्योंकि जो भी मिल जाएगा, वह भूल जाएगा; और सदा मिलने को बाकी रहेगा, वह याद रहेगा।
 भिखमंगे तो भिखमंगे होते ही हैं, अरबपति भी उतने ही भिखमंगे होते हैं। जहां तक भिखमंगेपन का सवाल है, भिखमंगे को जो उसके पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता; अरबपति को भी, जो उसके पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता। भिखमंगे को भी उसकी मांग रहती है, जो पास नहीं है; अरबपति को भी उसकी ही मांग रहती है, जो उसके पास नहीं है। फर्क क्या है?
 इतना ही फर्क है कि भिखमंगे के पास जो है, वह कम है भूलने को; अरबपति के पास भूलने को ज्यादा है। लेकिन भूलने को ही ज्यादा है, और तो कुछ अर्थ नहीं है। भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र को भूलता है, अरबपति अपनी तिजोड़ी को भूलता है। लेकिन भूलने में आप तिजोड़ी भूलें कि भिक्षा का पात्र भूलें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। न तो भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र का आनंद ले पाता है, न करोड़पति अपनी तिजोड़ी का आनंद ले पाता है।
 जो है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और परमात्मा अतिशय है। एक इंचभर जगह नहीं है, जहां वह नहीं है। इसीलिए करोड़ में कभी कोई एक उसकी खोज पर निकलता है। पाजिटिव माइंड, एक विधायक चित्त ही परमात्मा की खोज पर जा सकता है।
 उसे देखना शुरू करें, जो है। उसे भूलना शुरू करें, जो नहीं है। खाली स्थानों में मत भटकें; भरे स्थानों में जीएं। और ध्यान रहे, हर आदमी के पास इतना है कि काश, वह देखने लगे, तो शायद इस जमीन पर गरीब आदमी खोजना मुश्किल है।
 सुना है मैंने कि एक आदमी रो रहा है, छाती पीट रहा है। और एक फकीर उसके पास से निकला है और उसने पूछा कि तुम इतने परेशान हो रहे हो कि मुझे मालूम पड़ता है कि तुम बड़े गरीब आदमी हो। लेकिन मेरे गुरु ने कहा है कि इस जमीन पर कोई आदमी गरीब नहीं है। या तो मेरे गुरु गलत हैं, या तुम कुछ गलती समझे हो।
 उस आदमी ने कहा, मुझसे गरीब आदमी खोजना मुश्किल है। आज मैं दो दिन से भूखा हूं। मेरे पास कुछ भी नहीं है। उस फकीर ने कहा, लेकिन मेरे गुरु ने कुछ जांचने की तरकीबें बताई हैं; मैं पहले उनका प्रयोग कर लूं। उस आदमी ने कहा, तुम कब प्रयोग करोगे? मैं मरने के करीब हूं। मैं नदी में जा रहा हूं गिरने के लिए। आत्महत्या की तैयारी करके निकला हूं। अब मेरे पास कुछ भी नहीं है।
 उस फकीर ने कहा, तुम थोड़ा समय मुझे दो। तुम थोड़ी देर बाद भी मर जाओगे, तो दुनिया का कोई हर्ज होने वाला नहीं है। तुम मेरे साथ आओ। कम से कम मैं अपने गुरु की परीक्षा कर लूं।
 उस आदमी को ले गया सम्राट के पास। और सम्राट से जाकर भीतर उसने कुछ बात की। लौटकर उस आदमी को ले गया और रास्ते में उससे कहा कि सम्राट से मैंने तय कर लिया है; तुम्हारी एक-एक आंख के लिए वह एक-एक लाख रुपया देने को तैयार है। तुम दोनों आंखें बेच दो। दो लाख रुपए तुम्हारे हाथ में पड़ते हैं। उस आदमी ने कहा, तुमने मुझे क्या पागल समझा हुआ है? मैं और आंखें बेच दूं! उस फकीर ने कहा, लाख रुपए मिल रहे हैं, अगर तुम्हारा इरादा कुछ और ज्यादा का हो, तो बोलो। उसने कहा, तुम करोड़ भी दो, तो मैं आंख नहीं बेच सकता।
 क्योंकि जैसे ही खयाल आया अंधे होने का, तब पता चला कि आंख है। जब तक आंख थी, तब तक थी; बेकार थी। वह मरने जा रहा था। मरने में आंख भी मिट जाती। और भी सब कुछ मिट जाता।
 तो फकीर ने कहा, छोड़ो आंख को। हो सकता है, तुम्हें मरने जाना है नदी पर, तो आंख की जरूरत पड़े। इतना रास्ता पार करना पड़े। लेकिन कई चीजें ऐसी हैं, जो बिलकुल बेकार हैं; मरने के लिए जिनका कोई उपयोग नहीं है। कान ही बेच दो। हाथ ही बेच दो। कुछ तो बेच दो। क्योंकि मैं तुम्हारे लिए ग्राहक खोज लिया हूं। उस आदमी ने कहा कि तू आदमी किस तरह का है! मैं नहीं मरना चाहता हूं।
 क्योंकि उस आदमी को पहली दफा खयाल आया कि अगर हाथ भर कट जाए, तो कितनी कमी हो जाएगी। तो मौत कितनी बड़ी कमी होगी!
 अगर मरने वालों को, स्युसाइड करने वालों को करने के बाद एक मौका और दिया जाए, तो वे सब पछताते हुए वापस लौटेंगे। लेकिन मौका नहीं मिलता, इसलिए नहीं लौटते हैं। इसलिए अगर आपको स्युसाइड करनी हो, तो जल्दी कर लेना; देर मत लगाना। क्योंकि पांच-सात मिनट भी रुक गए, फिर आप न कर पाएंगे। उतनी देर में तो शायद अभाव का खयाल आ जाएगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं! सब मिट जाएगा।
 इसलिए जो लोग भी आत्मघात करते हैं, वे तीव्र भावावेश में और क्षण में कर लेते हैं। कंसीडर्ड, सोच-विचारकर कभी भी कोई आत्महत्या नहीं कर पाता।
 इस पृथ्वी पर कुछ बहुत विचारशील लोग हुए हैं, जिन्होंने आत्महत्या की तारीफ की है। उनमें यूनान का एक विचारक था, पिरहो। पिरहो कहता था कि आत्मघात एकमात्र करने जैसी चीज है, क्योंकि जिंदगी बेकार है। लेकिन वह नब्बे वर्ष का होकर मरा। और जब वह मर रहा था, तब किसी ने संदेह उठाया कि आश्चर्य कि कम से कम पचास साल से आप लोगों को समझा रहे हैं कि जिंदगी-मौत सब बराबर हैं। मर जाने के सिवाय कोई ठीक काम नहीं है। देअर इज़ नो डिफरेंस बिटवीन लाइफ एंड डेथ। आप यह समझाते रहे, कोई अंतर नहीं जीवन और मृत्यु में। आप नब्बे साल तक कैसे जीए? आप मर क्यों न गए?
 पिरहो ने आंख खोली और उसने कहा, बिकाज देअर इज़ नो डिफरेंस, क्योंकि कोई अंतर नहीं है मरने-जीने में। मैंने बहुत सोचा और पाया, कोई अंतर नहीं है। तो मरने से भी क्या फायदा! तो मैंने कहा, ठीक है, जो होता है, होने देना।
 पिरहो बहुत विचारशील आदमी था। और जिंदगीभर मरने के संबंध में सोचता रहा। मरा नब्बे वर्ष का होकर!
 बहुत सोच-विचार वाले लोग आत्मघात नहीं करते। तीव्र भाव के क्षण में घटना घट जाती है। क्योंकि उस भाव के क्षण में आप इतने आविष्ट होते हैं कि आपका निगेटिव माइंड सोच नहीं पाता कि कितना बड़ा गङ्ढा पैदा होने जा रहा है। बस एक क्षण में हो जाता है।
 कृष्ण कहते हैं, करोड़ में कोई एक कभी प्रभु की खोज पर निकलता है। क्योंकि करोड़ में एक आदमी के पास विधायक चित्त है।
 कल मैंने कहा था, संदेह से भरा चित्त। आज आपको और मैं संदर्भ बता दूं। संदेह से भरा चित्त निगेटिव होगा, नकारात्मक होगा। श्रद्धा से भरा चित्त विधायक होगा, पाजिटिव होगा।
 अगर संदेह से भरे चित्त वाले आदमी को हम कहें कि दुनिया के संबंध में कुछ वक्तव्य दो, तो वह जो वक्तव्य देगा, वे नकारात्मक होंगे। वह कहेगा, दुनिया बिलकुल बेकार है। यहां दो अंधेरी रात के बीच में एक छोटा-सा उजाले का दिन होता है। दो अंधेरी रात बड़ी घटना मालूम होगी। अगर हम विधायक चित्त के व्यक्ति से पूछें, तो वह कहेगा, यह दुनिया बड़ी अदभुत है। यहां दो उजेले दिनों के बीच में एक छोटी-सी अंधेरी रात होती है!
 अगर हम निषेधात्मक चित्त के व्यक्ति से पूछें, तो वह गुलाब के फूल के पास खड़े होकर सिवाय परमात्मा की निंदा के और कुछ न कर पाएगा। क्योंकि वह कहेगा, जहां इतने कांटे हैं, वहां मुश्किल से एक फूल खिलता है। फूल बेकार हो गया इतने कांटों की वजह से। अगर हम विधायक चित्त के आदमी से पूछें, तो वह कहेगा, आश्चर्य! प्रभु का धन्यवाद है। वह गुलाब के पास खड़े होकर घुटने टेककर प्रभु की प्रार्थना में लीन हो जाएगा। और वह कहेगा, अदभुत है तेरी लीला कि जहां इतने कांटे हैं, वहां भी फूल पैदा होता है। चमत्कार है, मिरेकल है।
 तो विधायक चित्त जिस व्यक्ति के पास है, वह प्रभु की खोज पर निकलता है।
 लेकिन कृष्ण फिर एक और बात कहते हैं कि करोड़ लोग प्रयत्न करें, तो कभी एक मुझे उपलब्ध होता है।
 इसका क्या अर्थ होगा? इसे भी ठीक से समझ लें।
 जो लोग भी प्रभु की दिशा में यात्रा शुरू करते हैं, करोड़ में से एक ही समर्पण करता है। करोड़ में से एक यात्रा करता है। अगर करोड़ यात्रा करें, तो एक समर्पण करता है। बाकी लोग संकल्प करते हैं, समर्पण नहीं। बाकी लोग कहते हैं, हम प्रभु को पाकर रहेंगे। तू कहां है, हम खोजकर रहेंगे। हम अपनी पूरी ताकत लगाएंगे। जीवन लगा देंगे दांव पर, लेकिन तुझे पाकर रहेंगे।
 कभी एक आदमी ऐसा होता है, जो कहता है कि मेरी क्या सामर्थ्य! मैं असहाय हूं। मेरी कोई शक्ति नहीं है। मैं तुझे कैसे खोज पाऊंगा! अगर तू ही मुझे खोज ले, तो शायद घटना घट जाए। मैं तुझे कैसे खोज पाऊंगा! मेरी शक्ति बड़ी छोटी है। एक छोटी-सी बूंद हूं। न मालूम किस रेगिस्तान में खो जाऊं! अगर सागर ही मुझ तक आ जाए, तो ठीक। अन्यथा मैं सागर को खोज पाऊं, इसकी कोई संभावना नहीं है।
 जो लोग प्रभु की खोज पर निकलते हैं, वे भी अस्मिता को, अहंकार को लेकर निकलते हैं। वे कहते हैं, हम प्रभु को पाकर रहेंगे। साधना करेंगे। योग करेंगे। आसन करेंगे। ध्यान करेंगे। लेकिन पीछे वह मैं खड़ा रहेगा।
 जैन परंपरा में एक बहुत मीठी कथा है। ऋषभ के सौ पुत्र थे। अनेक पुत्रों ने ऋषभ से दीक्षा ले ली। वे संन्यास की यात्रा पर निकल गए। बाहुबली भी ऋषभ के एक पुत्र थे। उन्होंने जरा देर की दीक्षा लेने में; कुछ सोच-विचार किया। लेकिन तब तक बाहुबली से छोटे बेटे दीक्षित हो गए। और जब बाहुबली के मन में दीक्षा का खयाल आया, तो उसके अहंकार को बड़ी पीड़ा हुई कि अपने छोटे भाइयों को संन्यास के जगत में तो मुझे प्रणाम करना पड़ेगा। क्योंकि वे मुझसे अग्रणी हो गए। उनके संन्यास की यात्रा बड़ी हो गई। अपने से छोटों को और मैं नमस्कार करूं, यह न हो सकेगा! तो उसने सोचा, ऐसी भी क्या जरूरत है। मैं खुद ही साधना क्यों न कर लूं!
 बलशाली व्यक्ति था। कमजोर तो हारते ही हैं, कभी-कभी बलशाली बुरी तरह हारते हैं। बल ही उनके हारने का कारण हो जाता है।
 तो बाहुबली एकांत में जाकर गहन तपश्चर्या में, सघन तपश्चर्या में लीन हुए। शायद इस पृथ्वी पर कम ही लोगों ने ऐसी तपश्चर्या की होगी और ऐसी साधना की होगी। सब कुछ दांव पर लगा दिया। सब कुछ। बस, एक छोटी-सी चीज छोड़कर; वह मैं पीछे खड़ा रहा।
 उनकी तपश्चर्या की ख्याति कोने-कोने तक पहुंच गई। जहां भी लोग सोचते-समझते थे, वहां तक बाहुबली की खबर पहुंची। और लोग हैरान हुए कि इतना पवित्रतम व्यक्ति, इतना शुद्धतम व्यक्ति, सब कुछ दांव पर लगाए खड़ा है, फिर भी कोई दर्शन नहीं हो रहा है सत्य का! क्या बात है?
 ऋषभ के पास भी खबर पहुंची। ऋषभ मुस्कुराए और उन्होंने बाहुबली की एक बहन को, जो दीक्षित हो गई थी, बाहुबली के पास भेजा और कहा, बस, जरा-सा तिनका अटका हुआ है। लेकिन वह तिनका पहाड़ों से भी भारी है। सब दांव पर लगा दिया है, सिर्फ मैं को बचा लिया है!
 और आप कुछ भी दांव पर न लगाएं, सिर्फ मैं को दांव पर लगा दें, तो हल हो जाए। लेकिन सब दांव पर लगा दें–धन, दौलत, यश, शरीर, मन–लेकिन एक पीछे मैं बच जाए, तो सब बेकार है। वह दांव पर लगाने वाला पीछे बच जाए, तो आप परमात्मा से संघर्ष कर रहे हैं; आप परमात्मा से प्रार्थना नहीं कर रहे हैं। तो आप सत्य को भी विजय करने निकले हैं; सत्य के साथ एक होने नहीं निकले हैं। यह कोई प्रेम की यात्रा नहीं है; यह कोई युद्ध, आक्रामक चित्त की दशा है।
 सब दांव पर है बाहुबली का। कुछ बचा नहीं लगाने को। वह भी चिंता में पड़ा, अब और क्या करने को बचा है? जितने उपवास कहे हैं तीर्थंकरों ने, सब पूरे कर डाले। जितने जागरण के लिए कहा है, उतनी रातें जागकर बिता दीं। कहा है खड़े रहो, तो महीनों खड़ा रहा हूं। कहा है कि चित्त को एकाग्र कर लो, तो चित्त एकाग्र है। सब शर्तें पूरी हैं। फिर कुछ हो तो नहीं रहा है। कहीं कोई कमी तो नहीं दिखाई पड़ती।
 फिर ऋषभ के द्वारा भेजी गई बाहुबली की बहन ने–बाहुबली आंख बंद किए। विशालकाय व्यक्ति था। सुंदरतम शरीर वाला व्यक्ति था। गोमटेश्वर में बाहुबली की प्रतिमा है, कभी आपने चित्र देखे होंगे। विशालकाय! जिसमें शरीर पर बेलाएं चढ़ गई हैं। और पक्षियों ने कान में घोंसले बना लिए थे। और शरीर पर बेलाएं चढ़ गई थीं, उसका उन्हें पता भी नहीं था। क्योंकि वह तो अंतर के संघर्ष में इतना लीन था कि शरीर पर क्या घट रहा है, उसे पता भी नहीं था।
 बहन ने चारों तरफ से जाकर बाहुबली को देखा। इतना घोर तपस्वी तो कभी देखा नहीं गया! कान पर पक्षियों ने घोंसले बना लिए हैं; अंडे रख दिए हैं। सुरक्षित जगह है। बाहुबली हिलता भी नहीं। बेलाएं चढ़ गई हैं। बेलाओं में फूल आ गए हैं। न मालूम कब से बाहुबली ऐसा ही खड़ा है पत्थर की तरह। अब और क्या बाकी है?
 और तब गहरे और गहरे घूमकर बहन ने भीतर तक झांकने की कोशिश की। और उसे दिखाई पड़ा कि भीतर बस एक चीज बाकी रह गई, वह मैं। तो एक गीत बाहुबली की बहन ने गाया कि सब कर चुके तुम, अब जरा सिंहासन से नीचे उतर आओ! बस, और कुछ न करो, जरा सिंहासन से नीचे उतर आओ। यह हाथी की पालकी पर कब तक बैठे रहोगे! जरा नीचे उतर आओ।
 और बाहुबली को यह सुनाई पड़ा कि हाथी की पालकी पर कब तक बैठे रहोगे! जरा नीचे उतर आओ। सब शुद्ध था। बस, वह एक पालकी अहंकार की भारी थी। और उसी क्षण घटना घट गई। इतनी बड़ी तपश्चर्या से जो न हुआ था, पालकी से उतरते ही हो गया। बाहुबली ने झुककर बहन को नमस्कार कर लिया। बात समाप्त हो गई। घटना घट गई।
 करोड़ लोग प्रयास करते हैं, एक पहुंचता है। क्योंकि वह एक ही अपनी अस्मिता को और अहंकार को खोता है।
 इसलिए कृष्ण ने कहा, मुझको परायण हुआ, मेरी तरफ झुक गया, समर्पित हुआ, मेरे चरणों में आ गया!
 यहां सवाल बड़ा यह नहीं है कि कृष्ण के चरणों में आ जाओ। बड़ा सवाल यह है कि झुक जाओ। ध्यान रहे, असली सवाल है झुका हुआ मन, समर्पित, सरेंडर्ड।
 करोड़ में से एक करता है कोशिश। करोड़ कोशिश करते हैं, एक पहुंच पाता है। कोशिश करता है वह, जिसके पास विधायक मन है। लेकिन विधायक मन का खतरा है कि वह अहंकार को मजबूत कर दे। पहुंच पाता है वह, जो मैं को समर्पित कर देता है। तब फिर, तब फिर कोई बाधा नहीं रह जाती।
 परमात्मा की तरफ से कोई बाधा नहीं है। आदमी की तरफ से दो बाधाएं हैं। एक, नकारात्मक मन; और दूसरा, अस्मिता से भरा हुआ भाव, अहंकार से भरा हुआ भाव। इन दो दरवाजों को जो पार कर जाता है, कृष्ण कहते हैं, वह मुझको उपलब्ध हो जाता है।
Osho

Mahabharat Sutra *महाभारत का "नव सार सूत्र" सबके जीवन में उपयोगी सिद्ध होगा

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